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हुआ । इस समप्रदाय में संत नामदेव , संत एकनाथि , संत तुकराम ने हिनदी में रचनाएं की है । इनकी परम्रा को आगे बढ़ाते हुए तेरहवीं- चैदहवीं सदी में संत कावय धारा का जनम हुआ । संत कावय परम्रा में कबीर , रविदास , गुरु नानक , दादपू दयाल , पलटूदास , मलपूकदास , सुनदरलाल , रज्जन आदि संत है । इनमें अधिकांश संत निम्न कही जाने वाली जातियों से हैं । इन संत कवियों ने अपने साहितय में वर्ण-वयवस्था , मपूसत्ण-्पूजा , अवतारवाद , आडमबरों का विरोध किया है । इस धारा ने निराकार रिह्म की स्थापना कर सामाजिक समरसता के साहितय की रचना की ।
संत साहितय परम्रा की लगभग दो शताब्दयों ््चात् साहितय की दलित विषयक धारा भारत की लगभग सभी भाषाओं में पुनः उभरती दिखायी देती है । इसका कारण थिा कि भारत में अंग्ेजी राज के स्थापित हो जाने एवं ईसाई मिशनरियों द्ारा अछूतों में शिक्ा का प्रचार एवं प्रसार हुआ । इस नवजागरण काल में प्रायः सभी भाषाओं में दलित विषयक रचनाकार हुए जिनहोंने साहितय की रचना की । साहितय की इस दलित धारा में महातमा जयोसतबा फुले का नाम अग्री है । जयोसतबा फुले ने निबनध , संवाद पत्र , वैचारिक लेखन , कावय रचना इतयासद विधाओं में अपने साहितय को लिखा है । सामाजिक कुरीतियाँ , नारी शिक्ा , समानता उनके साहितय का मुखय विषय है । इसी रिम में केरल में जाति से मछुआरे अछूत कवि के . पी . करुपन हुए जिनहोंने 1913 में शंकराचार्य के अद्ैत दर्शन का नया विनयास करते हुए ‘ जाति कुमभी ’ नाम से कविता लिखी । केरल के दलित साहितय की पृष्ठभपूसम में नारायण गुरु का आनदोलन है । नारायण गुरु के शिष्य थिे कुमारान आशान जिनहोंने अपनी रचनाओं के माधयम से जाति-प्रथिा पर कुठाराघात किया । इसी प्रकार तमिलनाडु में आतमसममान और काली कमीज आनदोलन चलाने वाले पेरियार ई . वी . राम्वामी नायकर , साहितय के क्ेत्र में ससरिय रहे । पेरियार रामा्वामी नायकर के आनदोलन को उत्र भारत में चलाने के श्रेय ललई सिंह यादव को हैं । ललई सिंह
यादव के बाद आदि हिन्दू आनदोलन का नारा देने वाले ्वामी अछूताननद ने साहितय सृजन के द्ारा दलित समाज में रिाकनत चेतना प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भपूसमका निभायी । उनहोंने दलित समाज में जागृति के लिए दलित महापुरुषों को अपने साहितय का विषय बनाया । दलितों को इस देश का मपूल निवासी ससद करते हुए उनहें आदि-हिन्दू नाम दिया ।
अतः बौद धर्म के उदय से लेकर ्वामी अछूताननद तक साहितय में दलित दृष्टि को स्थान अव्य मिला है परनतु सीमित अर्थो में । आज का दलित विषयक साहितय जिस समग्ता से विकसित हुआ है उसमें इस साहितय का योगदान महत्वपूर्ण है । अतः इन साहितयकारों की रचनाओं में दलित साहितय की नींव खड़ी करने में महत्वपूर्ण भपूसमका निभाई है । जिसे भारत रत्न डॉ . भीमराव आंबेडकर के उदय ने दलित दर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया । डॉ . आंबेडकर को अपनी पु्तकें अपनी संतान से भी बढ़कर प्रिय हैं । वे कहते हैं , “ पु्तकें लिखते हुए समय कैसे बीता जाता है , यह मेरी समझ में नहीं आता । लेखन करते समय मेरी ्पूरी शक्त एकत्रित होती है । मैं भोजन की परवाह नहीं करता मैं कभी-कभी तो रात भर ्ढ़ता-लिखता बैठा रहता हपूँ । मैं उस समय कभी नहीं ऊबता , न ही मैं बहुत निरूतसाही और असंतुष्ट हो जाता हपूँ , मेरे चार पुत्र होने पर जितना आनंद होता , उतना मुझे मेरी पु्तक के प्रससद होने पर होता है ।” बाबा साहब और पु्तकों का रर्ता कितना अटूट और प्रियकर है यह उपरो्त कथिन से ््ष्ट हो जाता है । बाबा साहब के पु्तक प्रेम उनकी साहितय से मानवतावादी विचारों की अपेक्ा तथिा लेखक की आम आदमी के प्रति विचार की धारणा , कितनी यथिाथि्णवादी ओर जीवोनमुखी है यह दिखाई देती है ।”
डॉ . आंबेडकर का कहना है कि आम आदमी की महत्ा से प्रेरणा लेकर लेखकों को लेखन करना चाहिए । वह कहते हैं , ‘ अपनी साहितय की रचनाओं में उदात् जीवन मपूलयों और सांस्कृतिक मपूलयों को पररष्ककृत कीजिए । अपना लक्य सीमित मत रखिए । अपनी कलम की
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