eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 30

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दलित विषयक साहित्य के प्ेरणा स्ोत डॉ . आंबेडकर

आशीष कुमार ‘ दीपांकर ’

माज परिवर्तनशील है तो समाज की मानयताएं भी परिवर्तनशील होनी चाहिए और परिवर्तनशील समाज का साहितय भी परिवर्तशील होना चाहिए , ्योंकि साहितय को समाज का दर्पण कहा जाता है और दर्पण में वही दिखना चाहिए जो सामने है । ्या भारतीय साहितय में या हिनदी साहितय में दलित समाज का वा्तसवक रूप दिखलाया गया है ? यदि ऐसा हुआ तो आज दलित विषयक साहितय की आवाज नहीं उठती । दलित विषयक साहितय , लेखन की बात करना यह साबित करता है कि साहितय में समाज के प्रमुख अंग को उपेसक्त किया गया है ।

इ्कीसवी सदी में दलित समाज को लेकर मन में कई तरह के प्रश्न आते हैं-्या भारत की जाति वयवस्था कभी समापत हो पायेगी ? ्या इस वयवस्था से पीड़ित और अपमानित लोगों को कभी मुक्त मिल पायेगी ? आज भी भारतीय समाज वयवस्था में सदियों से विशिष्ट वर्ण-वयवस्था और जाति-प्रथिा का प्रबल वच्ण्व रहा है । जाति-प्रथिा की घृणित सामाजिक सच्ाई के कारण ही अनेक भारतीयों को सामाजिक नयाय और सममान से वंचित होना पड़ा तथिा वयक्त जनम एवं कर्म से ही गुलाम हो गया । भारतीय समाज की इस रूसढ़वादी वर्ण-वयवस्था के कारण ही दलित असममान का पात्र बना रहा , चाहे वह सर्वगुण सम्न्न हो , कार्य कुशल हो , अपनी मेहनत से ऊंचे पद पर ्यों न हो पर
इक्ीसवी सदी में दलित समाज को लेकर मन में कई तरह के प्रश्न आते हैं-क्ा भारत की जाति व्वस्ा कभी समाप्त हो पायेर्ी ? क्ा इस व्वस्ा से पीदड़त और अपमानित लोर्हों को कभी मुक्ति मिल पायेर्ी ? आज भी भारतीय समाज व्वस्ा में सदियहों से विशिष्ट वर्ण- व्वस्ा और जाति-प्रथा का प्रबल वच्वस् रहा है ।
जाति भेद के कारण दलितों को सामाजिक , मानसिक प्रताड़ना और अतयाचारों से जपूझना पड़ता है । जातिवाद के कारण ही बुद , सावित्री बाई फुले , जयासतबा फुले और बाबा साहब आंबेडकर की देशभक्त पर उंगली उठाई गई ।
युग के बदलते परिवेश के साथि-साथि अमानवीय विककृत वर्ण-वयवस्था , धर्म-वयवस्था , जाति भेद तथिा सामंती मानसिकता की सोच के विरुद विद्रोह करने में भारत रत्न बाबा साहेब डॉ . भीमराव आंबेडकर ने कड़ा संघर्ष किया है । उनहोंने दलितों को नारा दिया-सशसक्त बनो , संगठित हो और संघर्ष करो । वह चाहते थिे कि
दलित वर्ग सशसक्त होकर अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हो ्योंकि आज भी भारतीय समाज जिनहें अस्ृ्य या अछूत कहता है , उनका घर आज भी गांव के बाहर दसक्र दिशा में मिलता है । आज भी बहुत कम वेतन में 24 घंटे श्रम करने वाले तथिा गंदे काम करने के लिए मजबपूर हैं । आज भी दुर्गम पहाड़ों , वनों तथिा जंगलों में जीने के लिए मजबपूर हैं । आज हम जब प्राचीन इतिहास और साहितय को उठा कर देखते है तो दलितों को लिए दास , द्यु , शपूद्र , चंडाल , अतयनज , अस्ृ्य , अछूत जैसे श्दों का प्रयोग मिलता थिा । ऐसे श्दों के माधयम से दलितों
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