के संदर्भ में उनकी आंखे खोलने में मदद की । 1847 में मिशन स्कूल की ्ढ़ाई उनहोंने ्पूरी कर ली । जयोसतबा फुले को इस बात का अहसास अचछी तरह से हो गया थिा कि शिक्ा ही वह हसथियार है , जिससे शपूद्रों-अतिशपूद्रों और महिलाओं की मुक्त हो सकती है . उनहोंने अपनी एक कविता में लिखा-
विद्ा बिना मति गई / मति बिना नीति गई / नीति बिना गति गई ।
सबसे पहले शिक्ा की जयोसत उनहोंने अपने घर में जलाई । अपनी पत्नी जीवन-साथिी
सावित्रीबाई फुले को सशसक्त किया । उनहें ज्ान- विज्ान से लैस किया । उनके भीतर यह भाव और विचार भरा कि ्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं । दुनिया का हर इंसान ्वतंत्रता और समता का अधिकारी है । सावित्रीबाई फुले , सगुणाबाई , फ़ासतमा शेख़ और अनय सहयोगियों के साथि मिलकर जयोसतबा ने हजारों वषषों से रिाह्मणों द्ारा शिक्ा से वंचित किए गए समुदायों को सशसक्त करने और उनहें अपने मानवीय अधिकारों के प्रति सजग करने का बीड़ा उठाया । अपने इन विचारों को वयवहार में उतारते हुए फुले दंपति ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला । यह स्कूल महाराष्ट्र में ही नहीं , ्पूरे भारत में किसी भारतीय द्ारा लड़सकयों के लिए विशेष तौर पर खोला गया पहला स्कूल थिा । यह स्कूल खोलकर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने खुलेआम धर्मग्रंथों को चुनौती दी ।
फुले द्ारा शपूद्रों-अतिशपूद्रों और महिलाओं को
सशसक्त करने का उद्े्य अनयाय और उत्ीड़न पर आधारित सामाजिक वयवस्था को उलट देना थिा . जब 1873 में अपनी किताब ‘ ग़ुलामगिरी ’ की प्र्तावना में उनहोंने इस किताब को लिखने का उद्े्य इन श्दों में प्रकट किया- ‘ सैकड़ों वषषों से शपूद्रासद अतिशपूद्र रिाह्मणों के राज में दुख भुगतते आए हैं । इन अनयायी लोगों से उनकी मुक्त कैसे हो , यह बताना ही इस ग्रंथ का उद्े्य है ।’ फुले जितने बड़े समथि्णक शपूद्रों-अतिशपूद्रों की मुक्त के थिे , उतने ही बड़े समथि्णक ्त्री-मुक्त के भी थिे । उनहोंने महिलाओं के बारे में लिखा कि ‘ ्त्री-शिक्ा के द्ार पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे थिे । ताकि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए .’ ्त्री मुक्त की कोई ऐसी लड़ाई नहीं है , जिसे जयोसतबा फुले ने अपने समय में न लड़ी हो । जयोसतबा फुले ने सावित्रीबाई के साथि मिलकर अपने परिवार को ्त्री-पुरुष समानता का मपूत्ण रूप बना दिया और समाज तथिा राष्ट्र में समानता कायम करने के लिए संघर्ष में उतर पड़े ।
फुले ने समाज सेवा और सामाजिक संघर्ष का रा्ता एक साथि चुना . सबसे पहले उनहोंने हजारों वषषों से वंचित लोगों के लिए शिक्ा का द्ार खोला । विधवाओं के लिए आश्रम बनवाया , विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया और अछूतों के लिए अपना पानी का हौज खोला . इस सबके बावजपूद वह यह बात अचछी तरह समझ गए थिे कि रिाह्मणवाद का समपूल नाश किए बिना अनयाय , असमानता और ग़ुलामी का अंत होने वाला नहीं है । इसके लिए उनहोंने 24 सितंबर 1873 को ‘ सतयशोधक समाज ’ की स्थापना की । सतयशोधक समाज का उद्े्य पौराणिक मानयताओं का विरोध करना , शपूद्रों-अतिशपूद्रों को जातिवादियों की म्कारी के जाल से मु्त कराना , पुराणों द्ारा पोषित जनमजात ग़ुलामी से छुटकारा दिलाना । इसके माधयम से फुले ने रिाह्मणवाद के विरुद एक सांस्कृतिक रिांसत की शुरुआत की थिी . 1890 में जोतीराव फुले के देहांत के बाद सतयशोधक समाज की अगुवाई की जिममेदारी सावित्रीबाई फुले ने उठायी ।
शपूद्रों-अतिशपूद्रों और महिलाओं के अलावा जिस समुदाय के लिए जोतीराव फुले ने सबसे
ज़़यादा संघर्ष किया । वह समुदाय किसानों का थिा . ‘ किसान का कोड़ा ’ ( 1883 ) ग्रंथ में उनहोंने किसानों की दयनीय अवस्था को दुनिया के सामने उजागर किया । उनका कहना थिा कि किसानों को धर्म के नाम पर भट्ट-रिाह्मणों का वर्ग , शासन- वयवस्था के नाम पर विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारियों का वर्ग और सेठ-साहपूकारों का वर्ग लपूटता-खसोटता है । असहाय-सा किसान सबकुछ बदा्ण्त करता है । इस ग्रंथ को लिखने का उद्े्य बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘ फिलहाल शपूद्र-किसान धर्म और राजय समबनधी कई कारणों से अतयनत विपन्न हालात में पहुँच गया है । उसकी इस हालात के कुछ कारणों की विवेचना करने के लिए इस ग्रंथ की रचना की गई है ।’ जोतीराव फुले चिंतक , लेखक और अनयाय के खिलाफ निरंतर संघर्षरत योदा थिे । वे दलित-बहुजनों , महिलाओं और गरीब लोगों के पुनर्जागरण के अगुवा थिे . उनहोंने शोषण-उत्ीड़न और अनयाय पर आधारित रिाह्मणवादी वयवस्था की सच्ाई को सामने लाने और उसे चुनौती देने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की । जिसमें प्रमुख रचनाएं निम्न हैं-
तृतीय रत्न ( नाटक , 1855 ), छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा ( 1869 ), रिाह्मणों की चालाकी ( 1869 ), ग़ुलामगिरी ( 1873 ), किसान का कोड़ा ( 1883 ), सतसार अंक-1 और 2 ( 1885 ), इशारा ( 1885 ), अछूतों की कैफियत ( 1885 ), सार्वजनिक सतयधर्म पु्तक ( 1889 ), सतयशोधक समाज के लिए उपयु्त मंगलगाथिाएं तथिा ्पूजा विधि ( 1887 ), अंखड़ादि कावय रचनाएं ( रचनाकाल ज्ात नहीं )।
भले ही 1890 में जयोसतबा फुले हमें छोड़कर चले गए , लेकिन जयोसतबा फुले ने सावित्रीबाई फुले के साथि मिलकर शपूद्रों-अतिशपूद्रों और महिलाओं के शोषण के खिलाफ जागरण की जो मशाल जलाई , आगे चलकर उनके बाद उस मशाल को सावित्रीबाई फुले ने जलाए रखा । सावित्रीबाई फुले के बाद इस मशाल को शाहपूजी महाराज ने अपने हाथिों में ले लिया । बाद में उनहोंने यह मशाल डॉ . भीमराव आंबेडकर के हाथिों में थिमा दिया । डॉ . आंबेडकर ने मशाल को सामाजिक परिवर्तन की जवाला में बदल दिया । �
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