eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 27

चाहते थिे , इसलिए उनहें गणतांत्रिक समाजवादी कहना भी उपयु्त होगा । व्तुतः जिस समाज के लिए वे काम कर रहे थिे , उसके कलयार हेतु आसथि्णक समरसता का विचार पर्यापत न थिा । लाहौर में ‘ जात-पात तोड़क मंडल ’ के वार्षिक अधिवेशन के लिए लिखे गए अपने लंबे भाषण ‘ जाति का उन्मूलन ’ में उनहोंने कई उदाहरण देकर बताया थिा कि आसथि्णक समाधान कभी भी सामाजिक समाधान का विकल् नहीं बन सकते । एक उदाहरण उनहोंने गुजरात के गांव का दिया थिा । वहां अछूत क्त्रयां घाट से पानी लाने के लिए मिट्टी के घड़ों का उपयोग करती थिीं । जानपूं गांव की खाते-पीते दलित परिवारों की कुछ क्त्रयों ने पानी लाने के लिए पीतल के घड़ों का उपयोग करना चाहा तो सवर्ण लोगों की तयोरियां चढ़ गईं । उनहोंने विरोध किया । ्पूरे भारत में यही हालात थिे । जयपुर रियासत के चकवारा की घटना के बारे में उनहोंने बताया कि एक रईस अछूत तीथि्ण यात्रा पर गया । लौटा तो परंपरानुसार उसने मित्रों-रर्तेदारों को भोज देने का फैसला किया । तय किया कि भोज के लिए सभी वयंजन
देशी घी में बनाए जाएंगे । सवरषों को पता चला तो उबलने लगे । अछूत देशी घी से बने वयंजनों का भोज दे , यह उनहें सहन न हुआ । सो ऐन भोज के समय दर्जनों दबंग समारोह स्थल पर जा धमके । पल-भर में सारा भोजन तहस-नहस कर दिया । समाजवाद मुखयतः आसथि्णक समानता को अपना लक्य मानता है ।
जाति संबंधी प्रश्नों से बचने के कारण भारत में समाजवादी राजनीति कभी भी दलितों की मददगार नहीं बन सकी । न ही सामाजिक नयाय और संसाधनों के संवितरण की नयाय्पूर्ण मांग रखने वाले आंबेडकर को किसी ने समाजवादी विचारक के रूप में मानयता दी । डॉ आंबेडकर ने मा्स्ण की आलोचना करते हुए बुद को अपनाया थिा । अपने विचारों के कारण लगभग आधी दुनिया पर छाए रहने वाली सव्व-इतिहास की इन महानतम हस्तयों में आपस में कोई ््धा्ण नहीं है । तो भी डॉ आंबेडकर के लिए बुद महत्व्पूर्ण थिे । इसलिए कि उनहोंने जाति पर सवालिया निशान लगाते हुए समानता आधारित समाज का सपना देखा थिा । सामयवाद के रूप में समानता आधारित समाज का सपना मा्स्ण का भी थिा । लेकिन मा्स्ण की सीमा थिी कि वे समानता को जीवन के आसथि्णक ्क् से आगे बढ़कर नहीं देख पाए थिे । भारत के बारे में उनहोंने काफी लिखा थिा , तथिापि वह जानकारी राजनीतिक और अखबारी सपूचनाओं पर केंद्रित थिी । जाति की भयावहता जिससे डॉ आंबेडकर का सीधा परिचय थिा और जिसकी विककृसत को ढाई हजार वर्ष पहले जनमे बुद भी समझते थिे , मा्स्ण का उस सम्या से सीधा कोई संबंध न थिा । उनके लिए सम्या को उतनी गहराई से समझना मुमकिन भी नहीं थिा ।
डॉ आंबेडकर मा्स्ण की वर्ग-भेद की अवधारणा से सहमत थिे । परंतु इस संशोधन के साथि कि भारतीय समाज में वर्गभेद मुखयतः सामाजिक-सांस्कृतिक रहा है । उनका मानना थिा कि जाति की सम्या के समाधान के बिना भारत में किसी भी सुधारवादी आंदोलन की सफलता संसदगध होगी । समाजासथि्णक परिवर्तन के लक्य को वे दलितों के प्रबोधीकरण द्ारा प्रापत करना
चाहते थिे । इस रूप में वे अपने समय के किसी भी समाजवादी से बड़े और प्रतिबद समाजवादी थिे । भारतीय समाजवादी आंदोलन और राजनीति की यह विडंबना रही उसने डॉ आंबेडकर को मात्र दलितों का नेता मानकर उपेसक्त रखा । इसके लिए डॉ आंबेडकर को तो कोई नुकसान नहीं हुआ । परंतु जाति के सवालों की ओर से मुंह मोड़े रहने के कारण भारत का समाजवादी आंदोलन लगातार अपनी प्रासंगिकता खोता रहा ।
डॉ आंबेडकर का ्पूरा जीवन एक महागाथिा है . एक लेख या पु्तक में उनके जीवनकर्म को नहीं समेटा जा सकता । वे अपने मानक आप हैं । इसलिए लेख का समापन हम उनहीं की बात से करना चाहेंगे । यह दरअसल में एक चेतावनी है जो भारतीय संविधान को लोकार्पित करते हुए उनहोंने हम सबको दी थिी । संविधान की प्र्तावना की शुरुआत उनहोंने ‘ हम भारत के लोग ’ से की हैI इसकी वयाखया उनके भाषण में भी मिलती है- ‘‘ मुझे याद है जब राजनीतिक रूप से ससरिय हिंदु्तानी ‘ भारत के लोग ’ कहने की अपेक्ा ‘ भारतीय राष्ट्र ’ कहना अधिक पसंद करते थिे । मेरा विचार है कि ‘ हम एक राष्ट्र हैं ’ ऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैंI हजारों जातियों में बंटे लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं ? सामाजिक एवं मनोवैज्ासनक दृष्टि से हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं , इस बात को हम जितनी जलदी समझ लें उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा । तभी हम राष्ट्र बनने की जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे तथिा इस लक्य को हासिल करने के तरीकों और साधनों के बारे में बेहतर पाएंगे । ( जाति-प्रथिा के रहते ) इस उद्े्य की प्राकपत कठिन है । जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं । पहला कारण तो ये कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं । दपूसरे वे एक जाति और दपूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को ले आती हैं । अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब मुश्कलों से मुक्त पानी होगी । असली भाईचारा तभी कायम हो सकता है , जब राष्ट्र मौजपूद हो , लेकिन बगैर बंधुतव के समानता , ्वाधीनता और राष्ट्रीयता महज दिखावा ही होंगी । �
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