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देखते हुए डॉ आंबेडकर ने ्वर्ण-मुद्रा को अपनाने का सुझाव दिया ; तथिा एक रजत-मुद्रा का मपूलय एक शिलिंग तथिा छह पैंस रखने की सलाह दी । उनकी अधिकांश अनुशंसाओं को सरकार ने जयों की तयों अपना लिया थिा । उनहीं के आधार पर आगे चलकर भारतीय रिजर्व बैंक की मपूलभपूत सैदांसतकी का विकास हुआ ।
अपने अथि्णशा्त्र संबंधी ज्ान के आधार पर डॉ आंबेडकर एडम स्मिथ और डेविड रिकाडवो जैसे ्लासिकल अथि्णशाक्त्रयों की कतार में खड़े नजर आते हैं । आगे चलकर राजनीति और समाज सुधार के क्ेत्र में उनहोंने जो काम किया , उसके आधार पर हम उनके अथि्णशा्त्र संबंधी सिदांतों की तुलना इटली के विचारक विलफर्ड परेतो से भी कर सकते हैं । परेतो ने यपूरोपीय समाज में वयापत असमानताओं का गहरा अधययन किया थिा । उसका मानना थिा कि शीर्ष पर मौजपूद अल्संखयक अभिजन समपूह अपने बुसद-चातुर्य द्ारा बहुसंखयक समपूह को छोटे-छोटे समपूहों में बांटे रखता है । इस तरह संगठित अल्संखयक अभिजन के आगे असंगठित बहुजन की शक्त नगणय हो जाती है । ‘ कलयारकारी अथि्णशा्त्र ’ के क्ेत्र में ‘ परेतो दक्ता तुलयांक ’ की चर्चा लगभग सभी आधुनिक अथि्णशा्त्री करते आए हैं । परेतो को ््धा्णतमक उत्ादन प्रणाली से कोई शिकायत न थिी । लेकिन वह चाहता थिा कि सरकार समाजासथि्णक समानता की स्थापना के दायितव को समझे तथिा उसके लिए समयानुसार आव्यक कदम उठाती रहे । उसके अनुसार ््धा्णतमक अथि्णवयवस्था में लाभार्जन की दर संतोषजनक बनी रहती है । नयाय-भावना के साथि काम करने वाली सरकार उस लाभ का एक सह्सा जरूरतमंदों तक पहुंचाकर असमानता की खाई को पाटते रहने का काम कर सकती है । परेतो के श्दों में आसथि्णक असंतुलन कम करने के लिए- ‘ समाज में किसी एक नागरिक के साथि निककृष्टतम किए बिना , कम से कम किसी एक नागरिक के साथि श्रेष्ठतम किया जा सकता है । ’
डॉ आंबेडकर को भी मशीनों और ््धा्णतमक उत्ादन वयवस्था से कोई शिकायत न थिी ।
लेकिन वे चाहते थिे कि सभी प्रमुख और आधारभपूत उद्ोग सरकार के अधीन हों । वे मानते थिे कि आसथि्णक सुधार की कोई भी योजना बिना भपूसम सुधार के असंभव है । इसके लिए उनहोंने बड़े भपू-्वासमयों की आय को आयकर के दायरे में लाने का सुझाव दिया थिा । 1946 में अखिल भारतीय ्तर पर भपूसम सुधार की आव्यकता पर जोर देते हुए उनहोंने कहा कि भपूसम वितरण में असमानता के कारण समाज के बड़े सह्से को बहुत छोटी जोतों से काम चलाना पड़ता है । परिणाम्वरूप एक ओर जहां श्रमशक्त का दुरुपयोग होता है , वहीं बहुत-सी श्रम-शक्त सनकष्रिय पड़ी रहती है । आव्यकता से कई गुना भपूसम के ्वामी बने जमींदार अपनी श्रम-शक्त का उपयोग इसलिए नहीं करते , ्योंकि उनहें जरूरत से कई गुना श्रमशक्त बेगार या मामपूली मजदपूरी पर उपल्ध हो जाती है । यानी समाज का एक वर्ग संसाधनों के अभाव में अपनी श्रमशक्त के लाभों से वंचित रह जाता है ; जबकि दपूसरा आव्यकता से कहीं अधिक संसाधनों पर काबिज होने के कारण दपूसरे के
श्रम को कम मपूलय पर खरीदने में सफल हो जाता है । इस तरह न केवल श्रम का अवमपूलयन होता है , बकलक समाज की बहुत-सी श्रमशक्त व्यर्थ चली जाती है । इसके लिए डॉ आंबेडकर ककृसष , उद्ोग , बीमा , बैंकादि का सं्पूर्ण राष्ट्रीयकरण चाहते थिे । वे वया्क भपूसम-सुधार के समथि्णक थिे । वह चाहते थिे कि सरकार सम्त ककृसष-योगय भपूसम का असधग्हण कर उसे उचित आकार के फामषों में विभाजित करे और उत्ाद का समुचित अनुपात में समाज के सभी सद्यों के बीच संवितरण हो । समाजासथि्णक समानता की स्थापना के लिए डॉ आंबेडकर का यह रिांसतकारी सोच थिा ।
डॉ आंबेडकर की विचारों पर हम समाजवादी चिंतन की छाया देख सकते हैं । लेकिन भारत में समाजवादी आंदोलन का जो ्वरूप रहा है , उस अथि्ण में वे कतई समाजवादी न थिे । हम उनहें आमपूल परिवर्तनवादी कह सकते हैं । चपूंकि वे सामाजिक समानता के लक्य को दलितों की वगटीय चेतना , शैक्सरक-सामाजिक उन्नयन तथिा लोकतांत्रिक परिवर्तन द्ारा प्रापत करना
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