के समक् उपस्थित हुए तो वहां मौजपूद प्रतयेक सद्य के हाथिों में उनकी लिखी पु्तक ‘ इवोल्यूशन ऑफ पब्लक फाइनेंस इन सरिटिश इंडिया ’ की प्रतियां थिीं । बात यहीं खतम नहीं होती ।
‘ रॉयल कमीशन ’ ने अपनी रिपोर्ट 1926 में प्रकाशित की थिी । उसकी अनुशंसाओं के आधार पर कुछ वषषों बाद ‘ भारतीय रिजर्व बैंक ’ की स्थापना हुई । इस बैंक की अभिकल्ना नियमानुदेश , कार्यशैली और रूपरेखा डॉ आंबेडकर की शोध पु्तक ‘ प्रा्लम ऑफ रुपी ’ पर आधारित है । उस समय तक उनका मुखय लेखन अथि्णशा्त्र जैसे गंभीर विषय को लेकर ही थिा । मात्र 27 वर्ष की उम्र में उनहें मुंबई के एक कॉलिज में राजनीतिक अथि्णशा्त्र के प्रोफेसर की नौकरी मिल चुकी थिी । अधया्न के अलावा वे विषय से संबंधित सैकड़ों लेख और वयाखयान दे चुके थिे । एक सभा में विद्यार्थियों के बीच ्ढ़े गए उनके लेख ‘ रेस्ांसिबिलटी ऑफ रेसपांसिबिल गवर्नमेंट ’ की प्रशंसा उस समय के महान राजनीतिक विज्ानी , चिंतक हेरालड लॉ्की ने भी की थिी । लॉ्की का कहना थिा कि ‘ लेख में आए डॉ आंबेडकर के विचार रिांसतकारी ्वरूप ’
के हैं ।
अथि्णशा्त्र के क्ेत्र में डॉ आंबेडकर के योगदान को और गहराई से समझने के लिए प्राचीन भारत की मुद्रा विनिमय प्रणाली के बारे में जानना आव्यक है । 1893 तक भारत में केवल चांदी के सस्कों का प्रयोग किया जाता थिा । 1841 में ्वर्ण मुद्रा का उपयोग भी होने लगा थिा । चांदी के सस्के का मपूलय उसमें उपल्ध चांदी के द्रवयमान से आंका जाता थिा । इस तरह एक ्वर्णमुद्रा का मपूलय 15 चांदी के सस्कों के बराबर थिाI 1853 में आ्ट्रेसलया और अमेरिका में ्वर्ण-भंडार मिलने से सोने की आमद बढ़ी । उसके बाद ्वर्ण-मुद्राओं में विनिमय का प्रचलन बढ़ने लगा । हालांकि उसका विधिवत चलन 1873 के बाद की संभव हो पाया । लगभग उसी समय चांदी के नए भंडार मिलने से उसकी आमद भी बढ़ने लगी , परंतु भारत में ्वर्ण उत्ादन में अपेसक्त वृसद नहीं हो पाई थिी । परिणाम्वरूप ्वर्ण-मुद्रा के मुकाबले भारतीय रजत-मुद्रा का निरंतर अवमपूलयन होने लगा । उस खाई को पाटने के लिए अधिक मात्रा में रजत-मुद्राएं ढाली जाने लगीं । लेकिन वह सम्या का अस्थायी समाधान
थिा । दपूसरे उससे उन वयक्तयों के लेन-देन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला थिा जो केवल रजत मुद्रा का इ्तेमाल करते थिे । जनसामानय के लिए वह प्रतिककूल स्थिति थिी । मुद्रा का अवमपूलयन होने से महंगाई में वृसद हुई थिी , जबकि आय जयों की तयों बनी हुई थिीI आंतरिक ्तर पर उससे प्रतयेक वर्ग को घाटा हो रहा थिाI 1872 से लेकर 1893 तक यही हालात बने रहे । मपूलय संतुलन के लिए अंतत : सरकार ने 1893 में रजत-मुद्रा ढालने का काम अपने नियंत्रण में ले लिया ।
उस समय तक मुद्राओं का मपूलयांकन उनमें उपल्ध धातु की मात्रा से आंका जाता थिा । 1899 में सरकार ने एक समिति का गठन किया , जिसने ्वर्ण-्टेंडर्ड के स्थान पर ्वर्ण-मुद्रा के उपयोग की सलाह दी थिी । तदनुसार मुद्रा का मपूलयांकन उसमें उपल्ध धातु-मपूलय के बजाए सरकार द्ारा अधिककृत मपूलय जितना आंका जाने लगा । सरकार ने रजत-मुद्रा का मपूलय 1 शिलिंग , 4 पेंस के बराबर कर दिया । नए नियम के अनुसार ्वर्ण-मुद्रा का मपूलय लगभग स्थिर थिा । उसके मपूलयांकन का अधिकार सीधे सरिटिश सरकार के अधीन थिा , जबकि रजत-मुद्रा के मपूलय-नियंत्रण के लिए उस समय तक कोई वयवस्था न थिी । मुद्राओं के मपूलयांकन को लेकर आंबेडकर का दृष्टिकोण मानवीय थिा । कलयारकारी अथि्णशाक्त्रयों से मिलता हुआ । उनका कहना थिा लोगों के लिए मुद्रा का वा्तसवक मपूलय उसके बदले मिलने वाली आव्यक व्तुओं से तय होता है । सोना बेशकीमती हो सकता है , लेकिन वह आदमी की सामानय जरूरतों को ्पूरा नहीं कर सकता । वह न तो किसी भपूखे का पेट भर सकता है , न ही उससे किसी नंगे तन को ढका जा सकता है । यदि एक रजत मुद्रा से उनहें जरूरत की सभी चीजें प्रापत हो जाती हैं , तो उनहें ्वर्णमुद्रा की दरकार न होगी । इसके लिए मुद्रा का भरोसेमंद होने के साथि-साथि विनिमय प्रणाली में स्थायितव भी जरूरी है । मुद्रा के प्रति जनता का असव्वास तथिा उसकी मपूलय-अस्थिरता आसथि्णक संकट को जनम देती है । रजत-मुद्रा के उतार-चढ़ाव को
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