eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 19

अस्पृश्यता नहीं थी भारतीय समाज में
यह विषय उनकी वय्तता एवं कार्य की वरीयतावश शेष रह गया । वा्तव में वह अतयंत वय्त थिे । उनहोंने अपनी पु्तक पासक्तान अथिवा भारत का विभाजन ( समयक प्रकाशन , ्लब रोड , पश्चम पुरी दिलली ) के दपूसरे सं्करण का प्राक्कथन के प्रथिम पैराग्ाफ को यही से प्रारमभ किया है-सभी के लिए सिरदर्द का कारण बन गयी पासक्तान की सम्या ने मुझे किसी और की अपेक्ा सबसे अधिक व्यथित किया । मैं खेद के साथि कह रहा हपूँ कि इसमें मेरा बहुत अधिक समय जाया हुआ , जिसके कारण मेरे कई सासहकतयक कायषों में विलमब हुआ और समयभाव में कई कार्य स्थगित करना पड़ा । आज दलित विषयक सम्या के समाधान के लिए दलित कौन ? यह जान लेना आव्यक होगा और यदि यह मार्ग दर्शन भी श्रदेय डॉ आंबेडकर द्ारा ही प्रापत हो गया होता तो लमबे समय से इस दिशा में किये जाने वाले प्रयास अब तक फलीभपूत हो गए होते ।
्या हिन्दू समाज में अस्ृ्यता थिी ? और दपूसरा प्रश्न है कि ्या हिन्दू समाज में अ्वचछ कार्य थिे ? इन दोनों प्रश्नों के यथिोचित उत्र से कम से कम वर्तमान हिन्दू समाज में दलित कौन ? का ्वरुप ््ष्ट हो जायेगा । डॉ बी आर आंबेडकर की पु्तक अछूत कौन और कैसे ( बुदभपूसम प्रकाशन , कामठी रोड , नागपुर , पृष्ठ -94 ) का छठा पैराग्ाफ में ््ष्ट है कि जहा
तक अनतयजों की बात है , उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं , वह उनके अछूत होने की बात का खंडन करने के लिए पर्यापत हैं । डॉ आंबेडकर ने आगे उसी पु्तक पर पृष्ठ 100 के अंतिम पैराग्ाफ में लिखा कि पहली बात यह हैं कि मनु के समय में अछूतपन नहीं थिा । उस समय केवल अपवित्रता थिी । चांडाल ही केवल अपवित्र थिा । डॉ आंबेडकर के इस कथिन के अनुसार अनतयज , चांडाल एवं शपूद्र अस्ृ्य नहीं थिे । डॉ आंबेडकर ने अस्ृ्यता के लिए मात्र गो-मांसाहार को उत्रदायी ठहराया । उनहोंने उसी पु्तक अछूत कौन और कैसे के अंतिम पृष्ठ-106 के पांचवे पैराग्ाफ में उललेख किया है कि गो मांसाहार ही अछूतपन के मपूल में निहित है । यदि हम गो मांसाहार निषेध को अपने चिंतन का आधारशिला बनाये तो इसका मतलब होता है कि अछूतपन की उत्सत् का गो बढ़ तथिा गो मांसाहार निषेध से सीधा समबनध होना चाहिए । इससे यह तथय तो प्रमाणित हो गया की गो बढ़ एवं गो कर्म इतयासद अस्ृ्यता के मपूल में थिा और इसलिए इसे अ्वचछ वयवसाय घोषित करने में किसी को आ्सत् नहीं होनी चाहिए । ऐसे प्रकरण में चिंतको को वयक्तगत या राजनीति से प्रेरित सरियाकलापों पर विचार करना औचितयहीन मानना भी चाहिए ।

अस्पृश्यता नहीं थी भारतीय समाज में

वर्तमान दलित समाज के सनदभ्ण में यह तथिा अब और महत्वपूर्ण हो गया है कि हिनदु्थिान में अस्ृ्यता एवं अ्वचछ पेशा ही उत्रदायी है , तो इसे विद्ानों एवं सामाजिक विषय के चिंतकों को वरीयता पर चिंतन करने किए आव्यकता है । डॉ आंबेडकर के निष्कर्ष में इसका विवरण यानी अस्ृ्यता का 600 ई्वी ्पूव्ण में प्रारमभ होना कैसे मानते थिे , इससे यह ््ष्ट होता है कि वैदिक काल गो-मांसाहार की बातें शरारत्पूर्ण एवं प्रतिशोध की भावना से हिन्दू समाज को विभ्रमित करने का एक प्रयास है । संस्कृत भाषा के श्दकोश श्द कलपफरूम में गो का इकनद्रय यानी अंग श्द से अथि्ण वय्त
किया गया थिाई । लेकिन पंडित तारा नाथि जो कलकत्ा संस्कृत अकादमी एक सद्य थिे , उनके द्ारा अंग्ेजी शासन काल में संस्कृत का श्दकोष वाच््तयम तीन हजार रुपया देकर लिखवाया गया थिा । वाच््तयम में गो श्द का अथि्ण गाय लिखा गया है । इस आधार पर गोध्न श्द का अथि्ण श्दकल्द्रुम के आधार पर इकनद्रयों का और वाच््तयम के अनुसार गाय की हतया से होता है । वेदों में अनेकों स्थान पर गोध्न श्द का प्रयोग है । इसलिए इस प्रकार के प्रायोजित भ्रम की संभावना सदैव बनी रही है ।
हिनदु्थिान में तुकषों , मुसलमानों एवं मुगलों के आरिमण एवं उनके शासन के ्पूव्ण अनेकों विद्ान विदेशी यात्रियों ने ्पूरे देश में घपूम घपूम कर वहां की संस्कृति , सभयता , धर्म , रहन-सहन , वयवसाय , कला इतयासद का बढ़ा-चढ़ा कर रोचक ढंग से विवरण प्र्तुत किया किनतु किसी विदेशी यात्री ने भारत में अस्ृ्यता , अस्ृ्य जातियां या समुदाय अथिवा अ्वचछ वयवसाय जैसे धर्म-कर्म , गोचर्म , कर्म , मैला ढोना , सफाई कर्मादि का एक भी जगह उललेख नहीं किया । मैगस्थनीज गयारहवीं सदी में हिनदु्थिान आया थिा । उसने भी प्रमुख विषयों पर अपना सं्मरण लिखा किनतु उसके भी सं्मरण में कहीं भी अस्ृ्यता और अ्वचछ पेशों का उललेख नहीं है । इसका हम तात्य्ण लेते है कि हिनदु्थिान में कम से कम मैगस्थनीज के आने तक इस देश में अस्ृ्यता एवं अ्वचछ वयवसाय नहीं थिे । चर्म के सनदभ्ण में सुप्रससद डॉ हमीदा खातपून ने अपनी पु्तक अर्बनाइजेशन पृष्ठ -50 पर लिखा है कि हिन्दू चमड़े का सनसषद एवं हेय समझते थिे , लेकिन भारत के मुस्लम शासकों ने उसके उत्ादन के लिए और अधिक प्रयास किये थिे । हिन्दू और इ्लासमक संस्कृति में चर्म-कर्म के आधार पर भेद के सनदभ्ण में यह एक बुनियादी अवधारणा मानी जा सकती है । इसे इस प्रकार भी वय्त किया जा सकता है कि चर्म वयवसाय से इ्लासमक समाज को आक्े् नहीं थिा , किनतु हिनदुओं एवं हिन्दू लोक जीवन में यह किसी भी मपूलय पर मानय नहीं थिा । स्थापित इतिहासकार डॉ राधे शरण ने अपनी
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