eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 16

भारत का समाज और सामाजिक व्यवस्ा

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किया जाता थिा । भारत में हिनदुओं को प्रसन्न करके अपनी सत्ा की उम्र बढ़ने के लिए 1826 में सरिटिश संसद ने हिन्दू धर्म ग्रंथों को प्रकाशित करने का निर्णय लिया । निर्णय के तहत भारत में राज करने वाली सरिटिश सत्ा ने हिनदुओं के लिए गो्वामी तुलसीदास द्ारा रचित रामचरितमानस या बालमीसक द्ारा रचित रामायण या वेदवयास द्ारा रचित महाभारत या फिर कर्म ज्ान देने वाली भागवत गीता का प्रकाशन नहीं किया । बकलक योजनाबद ढंग से हिन्दू समाज को बांटने के लिए षड्ंत्र्पूव्णक भारत में मनु्मृसत का प्रकाशन किया गया । परिणाम्वरूप मनु्मृसत में से कई ्लोकों को हटा दिया गया और उनके स्थान पर कई ्लोकों को योजनाबद ढंग से जोड़ दिया गया । इस प्रकार समझा जा सकता है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों का प्रकाशन और फिर सबसे पहले मनु्मृसत का प्रकाशित करने का निर्णय तातकासलक हिन्दू समाज को बांटने के उद्े्य से किया गया । यहां पर धयान देने लायक बिंदु यह है कि हिन्दू धर्म ग्रंथों का प्रकाशन सरिटिश काल में 1826 से लेकर 1888 तक के मधय हुआ और धयान रहे कि यही कालखंड सरिटिश सत्ा के लिए संरिमण काल थिा और 1857 में तो सरिटिश सत्ा के विरुद रिांसत की जवाला भी धधक उठी थिी । ऐसे में सरिटिश सत्ा ने ' बांटो और राज करो ' की अपनी नीति के साथि सबसे पहले हिन्दू धर्म ग्न्थ मनु्मृसत का अपने हितों को साधने के लिए परिवर्तन करके प्रकाशन कराया ।
हिन्दू धर्म ग्न्थ मनु्मृसत , जिसे प्रथिम हिन्दू धर्मनीति शा्त्र की संज्ा दी गयी है , में आज भी कुछ मपूल ्लोक ऐसे देखे जा सकते हैं , जिनहें ्ढ़कर किसी को भी ऐसा लगेगा कि उन ्लोकों की रचना महर्षि मनु ने नहीं , बकलक बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने की है । उदाहरणाथि्ण मनु्मृसत के अधयाय-2 के ्लोक संखया-155 को देखा जा सकता है , जिसमें ््ष्ट लिखा हुआ है कि विप्राणां ज्ानतो , जयैष्ठ्ं क्सत्रयाणां तु वीर्यतः वै्यानां धानयधनतः शपूद्रारां एव जनमतः ।। ( अथिा्णत रिाह्मण ज्ान से , क्सत्रय बल से ,
वै्य धन-धानय से और शपूद्र जनम से श्रेष्ठ होता
है । ) इसी प्रकार अधयाय-2 के ्लोक संखया-157
में कहा गया है कि यथिा काष्ठमयो ह्ती यथिा चर्ममयो मृगः । य्च विप्रोऽनधीयान्त्रय्ते नाम बिभ्रति ।। ( अथिा्णत जैसे काठ का हाथिी , नाम मात्र का हाथिी होता है और चमड़े का मृग नाममात्र का मृग होता है , उसी प्रकार मपूख्ण रिाह्मण भी नाममात्र का रिाह्मण होता है । )
हिंदू धारमथिक रीत-रिवाज , प्रथाओं एवं सामाजिक संस्ाओं का उद्ेश्य समरसतायुक्त समाज की स्ापना था और ऐसा ही समरसतापूर्ण समाज हिन्ू संस्कृ ति की हजारहों वर्ष से विशेषता था । हिन्ू लोक जीवन प्रककृ ति संविदा पर आधारित रहा है । प्रककृ ति में व्ापत स्ाभाविक रूप से सामाजिक समरसता ही हिन्ू लोक जीवन की मनीषा रही है ।
इसी प्रकार अधयाय-2 में ही ्लोक संखया-
137 यह कहता है कि पञ्ानां त्रिषु वरनेषु भपूयांसि गुणवकनत च । यत्र ्युः सोऽत्र मानार्हः शपूद्रोऽपि दशमीं
गतः ।।
( अथिा्णत चारों वर्ण के लोग पांच से अधिक गुणों से संपन्न कहीं पाए जाते हैं तो भी न्बे वर्ष की आयु को पार कर शपूद्र वर्ण के वयक्त को अनय सभी वरषों के लोग सा्टांग प्रणाम करके सममान देना चाहिए । )
यह तो मात्र तीन उदाहरण हैं , जो मनु्मृसत
के ्वरूप को रेखांकित करते हैं । सम्पूर्ण मनु्मृसत का अधययन करने के बाद ्वयं सरलता से समझा जा सकता है कि वा्तव में मनु्मृसत ्या थिी और अंग्ेजों द्ारा कुटिलता्पूव्णक उसे ्या बना कर हिन्दू समाज के सामने प्र्तुत किया गया ?

भारत का समाज और सामाजिक व्यवस्ा

प्राचीन मानव समाज जातिगत भेदभावों से रहित थिा । भारतवर्ष में हिन्दू धर्म , हिन्दू संस्कृति एवं हिन्दू जीवन ्द्सत ्पूर्णतः समरसतायु्त थिी । हिंदपू धार्मिक रीत-रिवाज , प्रथिाओं एवं सामाजिक संस्थाओं का उद्े्य समरसतायु्त समाज की स्थापना थिा और ऐसा ही समरसता्पूर्ण समाज हिन्दू संस्कृति की हजारों वर्ष से विशेषता थिा । हिन्दू लोक जीवन प्रककृसत संविदा पर आधारित रहा है । प्रककृसत में वया्त ्वाभाविक रूप से सामाजिक समरसता ही हिन्दू लोक जीवन की मनीषा रही है । अंग्ेजी शासन काल में शोषण से ््त हुए हिन्दू समाज में पश्चमी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के अभिप्राय से सामाजिक संस्थाओं एवं हिन्दू समाज में संयु्त परिवार प्रथिा के स्थान पर एकाकी परिवार प्रथिा जैसे दुर्भावना को जनम देकर सामाजिक कुरीतियों एवं प्रथिाओं की सेंधमारी की है और हिन्दू लोक जीवन को विघटित एवं भेदभाव्पूर्ण बनाया ।
इतना ही नहीं , हिन्दू लोक जीवन की जगह हिन्दू समाज ने ले ली । समाज एवं लोक जीवन में इतना अंतर है कि समाज केवल मानव से बनता है और लोक जीवन में मानव , प्रककृसत , जीव-जंतु , एवं वन््सतयों के साथि पेड़ पौधों का समुच्य भी होता है । इसे अचछी तरह से समझने लेने के बाद अब प्रयास यह होना चाहिए कि हिन्दू लोक जीवन एवं हिन्दू सामाजिक संस्थाओं में भेदभाव की विषबेल को काटकर उसे प्राककृसतक एकभाव कि अनुककूल बनाया जाए । प्राककृसतक संविदा पर ह्तांक्रित हिन्दू समाज में किसी भी तरह के भेदभाव , वह चाहे जातिगत हो या प्रजातिगत या फिर आसथि्णक आधार पर भेदभाव जैसे अवगुण आ्चय्ण का विषय हैं ।
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