eMag_April 2021_Dalit Andolan | Page 13

पृष्ठभपूसम में बाबा साहब डॉ आंबेडकर का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश भारतीय समाज में सामाजिक रिांसत के मार्ग को निर्णायक मोड़ देनेवाला महत्वपूर्ण ऊर्जा स्ोत रहा है । डॉ . आंबेडकर प्रखर चिंतक , कानपूनविद और सामाजिक नयाय की लड़ाई के योदा मात्र नहीं रहे , अपितु उनकी वैचारिक दृष्टि में अनयाय का प्रतिकार करने के साहस के साथि-साथि नैतिक ्थि पर अविचल चलने की प्रतिबदता भी दिखाई देती है , जो मपूलयों की पहचान ढूंढ़ते समाज को दिशा दिखाती है । भारतीय समाज में विविधता भी है और विषमता भी . विविधता ्वाभाविक होती है , परंतु विषमता नैसर्गिक नहीं है , इसलिए इस पर विचार आव्यक है । बाबा साहब के नैतिक साहस ने अपने समाज की विषमतामपूलक वयवस्था का मात्र विरोध ही नहीं किया , उनहोंने इसके कारण , समाज
और राष्ट्रीय एकता पर इसके दुष्प्रभाव और सतय , अहिंसा तथिा मानवता के विरुद इसके ्वरूप को भी उजागर किया । आधुनिक भारत के निर्माणकर्ताओं में डॉ आंबेडकर की समाज पुनर्रचना की दृष्टि को मात्र वर्ण आधारित जाति वयवस्था के विरोध एवं अछूतोदार तक ही सीमित करके देखा जाता है , जो उनके साथि अनयाय है । जाति वयवस्था का विरोध एवं जाति आधारित वैमन्य , छूआछूत का प्रतिकार मधयकालीन संतों से लेकर आधुनिक विचारकों तक द्ारा किया गया , परंतु अधिकतर संतों ,
र्ौतम बुद्ध का कथन ‘ आत्मदीपोभव ’ को बोधिसत्व डॉ . आंबेडकर ने अपने जीवन में न सिर्फ उतारा , बल्कि इससे पूरे समाज के लिए नैतिकता , न्ाय व उदारता का पथ आलोकित किया । बाबा साहब का मानना है कि जब हम किसी समुदाय या समाज में रहते हैं , तो जीवन के मापदंड एवं आदिगों में समानता होनी चाहिए ।
राष्ट्रनायकों ने वेद व उपनिषद् की दृष्टि से सामाजिक पुनर्रचना के कार्य में सहयोग दिया , जबकि बाबा साहब ने महातमा बुद के संघवाद एवं धमम के ्थि से ्वयं को सनदनेसशत किया ।
गौतम बुद का कथिन ‘ आतमदीपोभव ’ को बोधिसतव डॉ . आंबेडकर ने अपने जीवन में न सिर्फ उतारा , बकलक इससे ्पूरे समाज के लिए नैतिकता , नयाय व उदारता का ्थि आलोकित किया । बाबा साहब का मानना है कि जब हम किसी समुदाय या समाज में रहते हैं , तो जीवन
के मापदंड एवं आदशषों में समानता होनी चाहिए । यदि यह समानता नहीं हो , तो नैतिकता में पृथिकता की भावना होती है और समपूह जीवन खतरे में ्ड़ जाता है । यही चिंतन है , जिसके आधार पर उनका निष्कर्ष थिा कि हिंदपू धर्म ने दलित वर्ग को यदि श्त्र धारण करने की ्वतंत्रता दी होती , तो यह देश कभी परतंत्र न हुआ होता ।
बात श्त्र की ही नहीं , शा्त्रों की भी है , जिनके ज्ान से वंचित कर हमने एक बड़े सह्से को अपनी भौतिक एवं आधयाकतमक संपदाओं से वंचित कर दिया और आज यह सामाजिक तनाव का एक प्रमुख कारण बन गया है । डॉ आंबेडकर जाति वयवस्था का जड़ से उन्मूलन चाहते थिे , ्योंकि उनकी तीक्र बुसद देख पा रही थिी कि हमने कर्म सिदांत को , जो वयक्त के मपूलयांकन एवं प्रगति का मार्गदर्शक है , भागयवाद , अकर्मणयता और शोषणकारी समाज का पोषक बना दिया है । उनकी सामाजिक नयाय की दृष्टि यह मांग करती है कि मनुष्य के रूप में जीवन जीने का गरिमा्पूर्ण अधिकार समाज के हर वर्ग को समान रूप से मिलना चाहिए और यह सिर्फ राजनीतिक ्वतंत्रता एवं लोकतंत्र से प्रापत नहीं हो सकता । इसके लिए आसथि्णक व सामाजिक लोकतंत्र भी चाहिए . एक वयक्त एक वोट की राजनीतिक बराबरी होने पर भी सामाजिक एवं आसथि्णक विषमता लोकतंत्र की प्रसरिया को दपूसषत करती है , इसलिए आसथि्णक समानता एवं सामाजिक भेदभाव विहीन जनतांत्रिक मपूलयों के प्रति वे प्रतिबदता का आग्ह करते हैं । डॉ आंबेडकर की लोकतांत्रिक मपूलयों में अटूट आस्था थिी । वे कहते थिे ‘ जिस शासन प्रणाली से र्त्ात किये बिना लोगों के आसथि्णक व सामाजिक जीवन में रिांसतकारी परिवर्तन लाया जाता है , वह लोकतंत्र है .’ वे मनुष्य के दुखों की समाकपत सिर्फ भौतिक व आसथि्णक शक्तयों के आधिपतय से नहीं ्वीकारते थिे । डॉ . आंबेडकर ज्ान आधारित समाज का निर्माण चाहते थिे , इसलिए उनका आग्ह थिा- ' सशसक्त बनो , संगठित होओ और संघर्ष करो '। �
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