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दलित समाज के सधांस्कृ तिक पुनर्गठन की आवश्यकता
जवाहर लाल सिंह fpa
ज भी िदेश में दलितों , निम्न जाति के लोगों के साथ भदेि-भा्व होता रहा है । इनके रहनदे का इलाका गां्व या शहर सदे बाहर होता है । यह जयािातर मजदूरी और छोटडे-मोटडे काम- जैसदे जान्वरों की खाल उतारना या उनके श्वों को त्ठ्ानदे लगानदे आदि का काम करतदे हैं । जूतदे सिलाई करनदे का काम भी यही लोग करतदे हैं , जिनहें चमार जाति कहा जाता है । कुछ दलित ्वगमा जिनमदे ्वा्मीत् समाज प्रमुख है , आज भी मैला ढोनदे अथ्वा सफाई करनदे का काम करतदे हैं । कुछ जातियां जिनमदे डोम प्रमुख हैं , मुिदे को अतनि संस्ार करनदे में प्रमुख भूमिका निभातदे हैं और भी बहुत सारी दलित जातियां हैं , जिनके साथ सामाजिक भदेि-भा्व होता रहा है । डा . भीमरा्व आंबदे््र भी दलित जाति के थदे । उनहें भी तिरस्ार झदेलना पड़ा था और अंत में हिनिू धर्म की इस त्वद्रूपता सदे तंग आकर उनहोंनदे बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था । तिरस्कृत होतदे हुए भी उनहोंनदे त्विदेश में पढाई कर उच्च शिक्ा प्रापत किया और भारतीय संत्वधान के निर्माता बनदे और सामाजिक रूप सदे पिछडडे जातियों के लिए आरक्ण की व्यवसथा की जो आज भी लागू है । समय-समय पर इसमें संशोधन की बात उ्ठती रही है , पर साथ ही साथ इनके साथ अनयाय भी होता रहा है । तभी तो स्वणमा और दलित में भदेि-भा्व बना हुआ ह । बीच-बीच में इसमें ह्वा दी जाती रही है और दोनों वर्गों के बीच मिटती दूरी को फिर सदे बढ़ानदे का भी उपरिम होता रहा है ।
जगजी्वन राम कांग्रदेस के बडडे नदेता थदे । ्वह दलित जाति सदे आतदे थदे । कहा जाता है कि ्वह काशी में किसी में मंदिर में गए थदे तो उस मंदिर
को गंगाजल सदे धोया गया । अभी हाल ही में जीतन राम मांझी नदे भी अपनदे बारदे में ऐसा ही कहा था । मतलब कुछ लोग आज भी भदेिभा्व जारी रक्खे हुए हैं । आज भी कहीं-कहीं इनहें मंदिरों में प्र्वदेश नहीं करनदे दिया जाता । इन सबको इनके नदेता भुनातदे हैं और कुछ नए नारदे गढ़ लिए जातदे हैं , जैसदे-तिलक , तराजू और तल्वार , इनको मारो जूतदे चार यानी खाई को चौड़ी करनदे की प्रतरिया । भोलदे-भालदे दलित इनके पीछडे पीछडे चल पड़तदे हैं और बन जातदे हैं किसी खास पाटजी के ्वोट बैंक ।
ऐसा भी बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि इनकी शसथति में सुधार नहीं हुआ है । सुधार तो हुआ है , पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है । पर शायद हमारदे नदेता जिनकी राजनीति इनही सदे चलती है , पूरा प्रयास नहीं करतदे । आधुनिक समय में इसके कई नदेता पैदा हो गए जिनमदे कांशीराम , माया्वती , उदित राज , रामत्वलास
पास्वान , जीतन राम मांझी , लालू याि्व आदि प्रमुख हैं । इन लोगों की राजनीति इनही के बलबूतदे चलती है और इनके ही कनधों पर स्वार होकर यह सतिा सुख भोगतदे हैं ।
्वैसदे तो कहतदे हैं , यह शरीर भी चार वर्णों में बंटा है सिर यानी दिमाग मशसतष्् , ब्राह्ण है तो भुजाएं क्तत्य । कंधदे सदे लदे्र कमर तक ्वै्य है तो कमर के नीचदे का हिससा शूद्र है । फिर कया बिना पैरों के हम खडडे हो सकतदे हैं ? अर्थात शरीर के हर हिस्से का अपना अलग महत्व है । उसी प्रकार समाज के त्वतभन्न वर्गों का अपना अलग महत्व है । इसलिए इसदे अलग-थलग नहीं किया जा सकता । समरसता , समभा्व , समुचित भागीदारी जरूरी है , तभी बनदेगा समपूणमा समृद्ध भारत । दलित अशसमता और सशकती्रण के इस प्रश्न को भारतीय सामूहिक मनोत्वज्ान की पैनी नजर सदे िदेखनदे-समझनदे की जरूरत है । अकसर हम समाजशासत्ीय या राजनीतिक
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