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कर उनहें एक धर्म के रूप में रखनरे की मांग करनरे लगरे हैं ।
कोई इस पर बात ही नहीं करना चाहता कि डॉ . आंबरेडकर का पूरा संघर्ष हिंदू समाज ओर राष्ट्र के सशकतीकरण का ही था । डॉ . आंबरेडकर के चिनतन और दृष्टि को समझनरे के लिए यह धयान रखना जरूरी है कि वरे अपनरे चिनतन में कहीं भी दुराग्ही नहीं है । उनके चिनतन में जड़ता नहीं है । आंबरेडकर का दर्शन समाज को गतिमान
बनाए रखनरे का है । विचारों का नाला बनाकर उसमें समाज को डुबानरे-वाला विचार नहीं है । आंबरेडकर मानतरे िरे कि समानता के बिना समाज ऐसा है , जैसरे बिना हथियारों के सरेना । समानता को समाज के सिाई निर्माण के लियरे धार्मिक , सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक एवं शैक्तणक क्रेत् में तथा अनय क्षेत्ों में लागू करना आवशयक है ।
भारत के सवायंगीण विकास और राष्ट्रीय पुनरुतिान के लिए सबसरे अधिक महतवपूर्ण विषय हिंदू समाज का सुधार एवं आतम-उद्धार है । हिंदू धर्म मानव विकास और ईशवर की प्राषपत का स्ोत है । किसी एक पर अंतिम सतय की मुहर लगाए बिना सभी रुपों में सतय को सवीकार करनरे , मानव-विकास के उच्चतर सोपान पर पहुंचनरे की गजब की क्मता है , इस धर्म में ! श्ीमद्भगवदगीता में इस विचार पर जोर दिया गया है कि वयषकत की महानता उसके कर्म सरे सुतनतश्त होती है न कि जनम सरे । इसके बावजूद अनरेक इतिहासिक कारणों सरे इसमें आई नकारतमक बुराइयों , ऊंच-नीच की अवधारणा , कुछ जातियों को अछूत समझनरे की आदत इसका सबसरे बड़ा दोष रहा है । यह अनरेक सहस्ाषबदयों सरे हिंदू धर्म के जीवन का मार्गदर्शन करनरे वालरे आधयाषतमक सिंद्धातों के भी प्रतिकूल है ।
हिंदू समाज नरे अपनरे मूलभूत सिंद्धातों का पुनः पता लगाकर तथा मानवता के अनय घटकों सरे सीखकर समय समय पर आतम सुधार की इचछा एवं क्मता दर्शाई है । सैकड़ों सालों सरे वासतव में इस दिशा में प्रगति हुई है । इसका श्रेय आधुनिक काल के संतों एवं समाज सुधारकों सवामी विवरेकानंद , सवामी दयानंद , राजा राममोहन राय , महातमा जयोतिबा फुलरे एवं उनकी पत्ी सावित्ी बाई फुलरे , नारायण गुरु , गांधीजी और डा . बाबा साहब आंबरेडकर को जाता है । इस संदर्भ में राष्ट्रीय सवयंसरेवक संघ तथा इससरे प्ररेरित अनरेक संगठन हिंदू एकता एवं हिंदू समाज के पुनरुतिान के लिए सामाजिक समानता पर जोर दरे रहरे है । संघ के तीसररे सरसंघचालक बालासाहब दरेवसर कहतरे िरे कि ‘ यदि असपृशयता
पाप नहीं है तो इस संसार में अनय दूसरा कोई पाप हो ही नहीं सकता । वर्तमान दलित समुदाय जो अभी भी हिंदू है अधिकांश उनहीं साहसी रिाह्राणें व क्तत्यों के ही वंशज हैं , जिनहोंनरे जाति सरे बाहर होना सवीकार किया , किंतु विदरेशी शासकों द्ारा जबरन धर्म परिवर्तन सवीकार नहीं किया । आज के हिंदू समुदाय को उनका शुक्गुजार होना चाहिए कि उनहोंनरे हिंदुतव को नीचा दिखानरे की जगह खुद नीचा होना सवीकार कर लिया ।
हिंदू समाज के इस सशकतीकरण की यात्ा को डॉ . आंबरेडकर नरे आगरे बढ़ाया , उनका दृष्टिकोण न तो संकुचित था और न ही वरे पक्पाती िरे । दलितों को सशकत करनरे और उनहें तशतक्त करनरे का उनका अभियान एक तरह सरे हिंदू समाज ओर राष्ट्र को सशकत करनरे का अभियान था । उनके द्ारा उठाए गए सवाल जितनरे उस समय प्रासंगिक िरे , आज भी उतनरे ही प्रासंगिक है कि अगर समाज का एक बड़ा हिससा शषकतहीन और अतशतक्त रहरेगा तो हिंदू समाज ओर राष्ट्र सशकत कैसरे हो सकता है ?
वरे बार-बार सवर्ण हिंदुओं सरे आग्ह कर रहरे िरे कि विषमता की दीवारों को गिराओं , तभी हिंदू समाज शषकतशाली बनरेगा । डॉ . आंबरेडकर का मत था कि जहां सभी क्षेत्ों में अनयाय , शोषण एवं उतपीड़न होगा , वहीं सामाजिक नयाय की धारणा जनम लरेगी । आशा के अनुरूप उतर न मिलनरे पर उनहोंनरे 1935 में नासिक में यह घोषणा की , वरे हिंदू नहीं रहेंगरे । अंग्रेजी सरकार नरे भलरे ही दलित समाज को कुछ कानूनी अधिकार दिए िरे , लरेतकन आंबरेडकर जानतरे िरे कि यह समसया कानून की समसया नहीं है । यह हिंदू समाज के भीतर की समसया है और इसरे हिंदुओं को ही सुलझाना होगा । वरे समाज के विभिन्न वगवो को आपस में जोड़नरे का कार्य कर रहरे िरे । आंबरेडकर नरे भलरे ही हिंदू न रहनरे की घोषणा कर दी थी । ईसाइयत या इसलाम सरे खुला निमंत्ण मिलनरे के बावजूद उनहोंनरे इन विदरेशी धमषों में जाना उचित नहीं माना । डॉ . आंबरेडकर इसलाम और ईसाइयत ग्हण करनरे वालरे दलितों की दुर्दशा को जानतरे िरे । उनका
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