जो समानता , बंधुता व सवतंत्ता जैसरे जनतांतत्क मूलयों पर आधारित है ।
दलित विषयक साहितय का समाज बोध पाठक और श्ोता की चरेतना एवं अनुभूति को प्रभावित करनरेवाली गहन संवेंदना सरे ही पूरा होता है । साहितय पर समय और समाज का सपष्ट प्रभाव
होता है । साहितया की रचनाओं में मनुष्य की मषसतष्क पर पड़नरेवालरे जीवन और जगत की घटना और षसितियों का ही प्रतिबिंब होता है । दलित विषयक साहितय की मानयता है कि कला या साहितय को सामाजिक दायितव का निर्वाह करतरे हुए कला सृजन में आगरे बढ़ना चाहिए । इस दृष्टि सरे दलित विषयक साहितय शुद्ध कला न होकर एक सामाजिक आंदोलन है ।
हिंदी दलित विषयक उपनयास यह सामाजिक सरंचना की तह में जाकर पूररे समाज की न केवल पड़ताल करता है बषलक उसमें छुपी हुई विसंगतियों को उजागर कर उसके प्रतिकार और परिष्कार का प्रयत् भी करतरे हैं । सुअरदान उपनयास में यह दरेख सकतरे है , “ तीन बरेतटयों का मानना था आदमी जाति सरे नहीं बषलक कर्म सरे बड़ा होता है । जातिवाद , ऊँच-नीच की भावना समाज में यह कोढ की तरह है । यदि इसका इलाज न किया गया तो पूरा समाज रोगी बन जायरेगा ।” भारतीय संदर्भ में यह वर्ण-वयवसिा
का विरोध करके समरस समाज के साथ-साथ मानव मात् की गरिमा को सिातपत करना चाहता है । सामाजिक संकीर्णता और विसंगितों सरे मानव मात् को मुकत करना तथा दलित पीतड़त मानवता को समानता व सममान दिलाना ही इस उपनयास का उद्देशय हरे । इसलिए प्रथमत : और अंतत : भी इसके लक्य और सरोकार समाजबोध ही है ।
छपपर उपनयास में चंदन नरे अगला सवाल किया –“ तो इसका मतलब यह हुआ कि तुमहारी जो आज दीन-हीन हालत है , तुम जो रोजी-रोटी के लिए दूसरों के मुंहताज हो और तुमको नीच , अछूत या हरेय मानकर दूसररे लोग तुमसरे जिस प्रकार घृणा और उपरेक्ा का वयवहार करतरे है , तुम जो शोषण , अपमान और अतयाचार के शिकार हो इस सबका कारण ईशवर है वहीं तुमहारी दूर्दशा कर रहा है ।” सदियों के शोषण , प्रताड़ना , द्वेष और वैमनष्य के भरेदभाव तलरे दबा दलित समाज भारतीयों की सांस्कृतिक विरासत और समाज वयवसिा को आज इसी दृष्टि सरे दरेखता है । इस समाज की जो दशा हुई है यहाँ की धार्मिक परंपरा , ईशवर का डर यही बात इस उपनयास चंदन समाज के सामनरे रखता है । इतिहास में ऐसरे अनरेक घटनाएँ घटित हुई है जिनके पीछे जाति नरे गहरी साजिश रची है । दरेश और समाज के विघटन में भी महतवपूर्ण भूमिका निभाई है । जब-जब भी बाहरी आक्ांताओं सरे समुच्चय दरेश को एकसाथ मिलकर टकरानरे की जरुरत पड़ी , जाति में बटाँ समाज एकसाथ जूडनरे में असमर्थ ही दिखाई दिया और दरेश को लगातार पराजयों का मुँह दरेखना पड़ा । इन पराजयों सरे भी हमनरे कुछ नहीं सीखा कयोंकि दरेश सरे बड़ा जातीय गौरव था । जिस भ्रम नरे इस दरेश को हजारों साल गुलाम बनाकर रखा । दरेश को गुलाम बनरे रहना मंजुर था लरेतकन जाति को छोड़ना या इसरे छोड़ना धर्म का हिससा था , जिसरे विद्ान ईशवरीय आदरेश सिद्ध करनरे में लगरे हुए िरे ।
दलित उपनयास इन सबके विरोध खडे है । वो भारतीय समाज में समता व सवतंत्ता का पक्धर है । मनुष्य की अषसमता एवं सममान को सववोपरि मानता है । भारतीय समाज वयवसिा को दलितों की विपन्नता , निरक्रता , सामजिक
उतपीड़न , विद्वेष , हीनताबोध , गरीबी , दुख का कारण मानता हैं । कयोंकि भारतीय समाज वयवसिा नरे दलितों पर सिर्फ असपृशयता ही नहीं थोपा बषलक उनपर कडे और कठोर दंड भी लागू किए । जिसरे धर्म , सत्ा और साहितय नरे अपना समर्थन दिया ।
मुषकतपर्व यह सामाजिक उपनयास है । इसमें दलित जीवन का तचत् है , दलित जीवन की विसंगति और समसयाएँ है और दलित शोषण- उतपीड़न की वयिा कथा है । “ भई महारा इकल्ले का छोरा थोडा ही है सुनीत तो सारी बसती का हो गया है अब ।” सुनीत नरे समाज में वयापत जातिभरेद दरेखा था और उसके विरोध में आवाज भी उठाई थी । प्राथमिक पाठशाला में पढ़तरे समय वो पुसतक में छपरे तचत् पर शंका प्रकट करतरे हुए पूछता है पयाऊ पर बैठा आदमी नलकी सरे दूर सरे दलितों को पानी पिलाता है । इस तचत् में नलकी कयों नहीं है ? सुनीत बच्चों और मासटरजी के साथ पयाऊ पक जाकर पंडितजी को ललकारता है और नलकी खींचकर फेंक दरेता है । छोटे बच्चरे का इतना साहस और पोलिस का भय दरेखकर वह सुनीत की बात सरे सहमत हो जाता है । आजादी मिलनरे के पाँच-छह बरस बितनरे के समय के सामाजिक वातावरण के लरेखक ऐसी कलपना कर सके कि पाँच-छह का दलित बालक भी पंडित को भयभित कररे उसरे जातिभरेद माननरे सरे रोक सकता है । इसरे आजादी के पर्व के साथ दलितों का मुषकतपर्व ही मानना चाहिए । यही बालक एक दिन पूररे बसती के लिए लड़ता है । यह समाजबोध मुषकतपर्व उपनयास में दिखाई दरेता है । “ दलित उपनयास ही लोगों का संस्कृति विमर्श और सामाजिक ऐतिहासिक पड़ताल है इसलिए इसकी सामाजिकता और सामाजिक प्रतिबद्धता पारंपारिक साहितय सरे बिलकुल अलग दिखाई पड़ती है ।“ इस प्रकार हिंदी दलित उपनयास का इतिहास एवं समाज बोध मुखयधारा सरे बिलकुल भिन्न है । वो मानवीय श्म को ही सौंदर्य और वयवसिा की अनयायपूर्ण विसगंतियों सरे मुषकत को ही अपना सामाजिक सरोकार और अपनी समाजिकता मानता है उसके केंद्र में केवल और केवल मनुष्य व मनुष्यता है । �
fnlacj 2022 45