विधवा स्त्री की व्यथा
रविवार का बाजार
चार – पाँच सौ लोगोँ का जमाव
दूर गाँव से आई ,
एक विधवा स्त्री
घर में भूखे बच्चों को छोड़,
बेचने को कुछ सामान
फटे – चीथड़े कपड़ों से लज्जा ढक,
सबसे अलग बैठी हुई
आशा की किरण लिए ,
उम्मीद की दीये जलाए
सूरज चढ़ता व्योम, धरती होती तप्त
प्रायः हुई दोपहरी
गुजरने वाला हरेक क्षण
मानो उसकी उम्मीद पर ग्रहण बन
आशा को निगलने को तैयार
पर, मन में है विश्वास
कोई खरीदने आयेगा मेरे पास
बाबू जी ,बाबू जी कहके पुकारते हैं उसके प्यासे ओंठ
आँखों में है अश्रु जल ललाट पर घिर आई चिंताओ का जाल
संध्या होने लगी थी
पर बिका न एक भी माल
भूख से अकुलाते बच्चो की छवि
आँखों के चारों ओर फिरने लगी
बेबस, लाचार माँ की ममता
अश्रु की बूंदें बनकर छलक पड़े
झट आँचल से आँसू पोंछ
बाबू जी, बाबू जी कहके
मृत पति की कमीज पैंट दिखाती
कपड़ों में छिपी मैल पर ज्योहीँ
स्थूल दृष्टि पड़ती
लोग अनदेखा कर आगे बढ़ते
छिः छिः कहके तिरस्कार करते
किन्तु उसके हृदय की वेदना
व्यथित आँखों, उदास चेहरों पर
पड़ी नहीं किसी की सूक्ष्म दृष्टि
देखते ही देखते सूरज ढल गया
अंधकार ने विधवा स्त्री की
आशा को निगल लिया
Photo Courtesy of Debashree Bhaduri