Savita Agarwal
(शीर्षक----"बसंत " / सप्ताह 1) पर एक प्रयास
जीवन -ऋतु पर बस दो ऋतुये ही भारी है ।
या तो है वो पतझड़ ,या बसंत -कुमारी है ।
जब जीवन -साख पर आशाओ की कालिया खिलती है ।
उम्मीदों की पुरवाई चलती है ।
सपनो के जुगनो उड़ते है ।
जीवन - लताये मुस्कराती है ।
तो समझ लेना बसंत-कुमारी आती है ।
बांध के घुंघरु अपने पैरो में ।
वो मन को भरमाती हैं ।
पतझड़ में टूटे पत्तो को ।
वो गोद में अपने उठाती हैं ।
तो समझ लेना बसंत-कुमारी आती है ।
भर उठती हैं असीम वेदना से वो जब ।
पतझड़ में सूखे पेड़ो को वो सिसकता पाती है ।
डर उठती है उन सन्नाटो से वो जब ।
तो कोयल सा चहकाती हैं ।
भवरों को गुंजाती है ।
तो समझ लेना बसंत-कुमारी आती है ।
चाँद सी बिंदिया ।
सूरज के कुंडल ।
पहन धानी की सारी।
नवयोवना सी शर्माती है ।
तो समझ लेना बसंत-कुमारी आती है ।।।।।
......................सविता अग्रवाल