विश्वम्भर शुक्ल
शीर्षक -'बसंत' सप्ताह -१
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अतिथि रचना (अप्रकाशित और मौलिक )~~~
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बासंतिक मौसम तो आया है कई बार ,
सौरभ ने मुझको दुलराया है कई बार !
मन की गहराई में झांका है जब मैंने
तुमको ही अपने घर पाया है कई बार !
मदमाती गंध लिए बौराई बगिया ने
उपवन यह प्यासा महकाया है कई बार !
खिडकी से छुप-छुप कर देखा है चन्दा को
बादल की सीढ़ी से आया है कई बार !
एक तृषा पीने को सौ सौ सौगंध और
अकुलाए अधरों को तरसाया है कई बार !
पीत-वर्ण पुष्प हँसे ,भोर हंसी,सांझ खिली,
जीवन तो दिन-दिन मुसकाया है कई बार !
आँखों का सम्मोहन बाँध रहा मोहन को,
बंसी पर नेह-गीत गाया है कई बार !
मदिर,मस्त मौसम की देहरी पर व्याकुल है,
इस मन को प्रिय ने भरमाया है कई बार !
_____________________________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
लखनऊ