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संक्वधान प्रशासक्िक, क्वधायी और क्वत्ीय क्षेत्रों में संघीय सरकार और घटक इकाइयनों के संबंधनों को क्ियंत्रित करता है । ऐसे क्ियमनों को संघीय सरकार और घटक इकाइयनों, दोिनों के वैध क्हतनों का धयाि रखना होता है और घटक इकाइयनों की सीक्मत सवायत्ता की रक्षा करनी होती है । यह कोई आसान काम नहीं है । भारत के संक्वधान
के एक क्िष्पक्ष पाठक को यह धारणा बनती है क्क इन प्रावधािनों ने घटक इकाइयनों की कीमत पर संघीय सरकार को और अक्धक शन््तयां प्रदान की हैं ।
संक्वधान के कुछ प्रावधान तो प्रशासक्िक क्षेरि में घटक इकाइयनों की सीक्मत सवायत्ता को नष्ट करने की हद तक चले गए हैं । ऐसा अनुचछेद-356 में हुआ है, जो राज्यों में राष्ट्रपक्त शासन का प्रावधान करता है । अनुचछेद-356
के उपयोग की पृष्ठभूक्म अनुचछेद-355 द्ारा प्रदान की गई है, जो इस प्रकार है, '' संघ का यह कर्तवय होगा क्क वह प्रतयेक राजय को बाह्य आरिमण और आंतरिक अशांक्त से बचाए तथा यह सुक्िश्चित करे क्क प्रतयेक राजय का शासन इस संक्वधान के उपबंधनों के अनुसार चले ।'' इस प्रकार, प्रतयेक राजय की सुरक्षा का दाक्यतव केंद्र सरकार पर डाला गया है । न्यायशासरि में, दाक्यतव की अवधारणा शन््त या अक्धकार की
अवधारणा से जुड़ी हुई है । राजय का कोई भी अंग या कोई भी व्यक्त उस पर डाले गए संवैधाक्िक दाक्यतव को तब तक पूरा नहीं कर पाएगा, जब तक क्क संक्वधान उसे दाक्यतव पूरा करने के क्लए पर्यापत शन््तयां प्रदान न करे ।
डा. आंबेडकर ने अनुचछेद-355 के आधार की वयाखया इस प्रकार की-
'' अब मैं अनुचछेद-277-ए और अनुचछेद-355 पर आता हूं । कुछ लोग सोच
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