में दलितों की षसथठत को रेखांकित किया है । उनहोनें इतिहास लेखन में दो तथयों को स्वीकार किए जाने की बात स्वीकार की है । पहली बात यह स्वीकार कर लेनी चाहिए कि एक समान भारतीय संसकृठत जैसी कोई बात कभी नहीं रही । दूसरी बात यह स्वीकार की जानी चाहिए कि मुसलमानोें के आक्रमण से पहले भारत का
इतिहास ब्ाह्मण्वाद और बौद्ध धर्म के अनुयायियों के बीच परसपर संघर्ष का इतिहास रहा है । जो इन तथयों को स्वीकार नहीं करता
्वह भारत का सच्चा इतिहास , जो युग के अर्थ को सपषट कर सके कभी नहीं लिख सकता ।
डा . आंबेडकर का मत था कि दलित जातियों का उद्धार स्वयं उनके हाथों ही होगा । उनके अधिकारों की रक्ा के लिए कानूनी व्यवसथा जरूरी है । इसके साथ राजनीतिक सत्ा भी उनके हाथों में आ जाएगी ।
इस ठ्वषय में डा . आंबेडकर और महातमा गांधी के बीच मतभेद था । इसे दूर करने के लिए दोनों के मधय 24 सितम्बर 1932 को एक समझौता हुआ । पूना में मीटिंग होने के कारण इसे पूना पैकट कहा गया । इस पैकट से दलित ्वगति के लिए शिक्ा प्रापत करने का रासता साफ हो गया । उनके लिए सरकारी से्वाओं के दर्वाजे खुल गए । उनहें ्वोट देने का अधिकार मिल गया । दलित प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार चुना्व क्ेत् के सभी मतदाताओं को दिया गया । पूना पैकट में दलितों को के्वल दस ्वषति के लिए आरक्ण दिया गया था । डा . आंबेडकर भी आरक्ण की ्वैसाखी को अधिक समय तक मानयता देना नहीं चाहते थे । ्वह चाहते थे कि दलित स्वयं अपनी योगयता के आधार पर समाज में अपना सथान बनायें । डा . आंबेडकर ने दलितों के लिए अनेक महत््वपूर्ण कार्य किए । उनहोंने अनेक ठरक्ण संसथानों ए्वं छात्रावासों की सथापना की । उनके प्रयासों से ही 29 अप्रैल 1947 को छुआछूत को कानूनी रूप से सदा के लिए समापत कर दिया गया । कानून मंत्ी के रूप में उनहोंने हिनदू कोड बिल पारित कर्वाया । इस प्रकार उनहोंने हिनदू महिलाओं पर जो उपकार किया उसे भुलाया नहीं जा सकता ।
डा . आंबेडकर के चिंतन में समाज्वाद औैर क्राषनत के सूत् मौजूद थे । उनहोंने स्वतिहारा की तानाशाही का ठ्वरोध किया , समाज्वादी व्यवसथा का नहीं । ्वह राजय के नियंत्ण में नई समाज व्यवसथा के लिए ऐसी आर्थिक व्यवसथा सथाठपत करना चाहते थे , जिसमें संपठत् का समान ठ्वतरण , कृषि पर राजय का स्वामित्व हो , सामूहिक कृषि की व्यवसथा हो और बीमा का राषटीकरण हो । ्वह राजनीतिक क्राषनत से
पहले सामाजिक क्राषनत का समर्थन करते थे और भारतीय समाज की जड़ ताकतों द्धारा धर्म के नाम पर समता , स्वतंत्ता , बंधुता के हनन की ्वणति्वादी गाथाओं का अंत करके ऐसा समता मूलक समाज चाहते थे , जहां किसी के प्रति भेदभा्व न हो ।
दलित प्रतिनिधित्व के प्रश्नों पर राजेनद्र याद्व लिखते है कि यह कैसी ठ्वडम्बना है कि जब तक दलित समाज हमारी हमददटी और सहानुभूति के दायरे में होता है , तब तक हमारी दृषषट में यह ठीक कहा जाता है लेकिन जयों ही ्वे अपने अधिकारों की मांग करते हैं , हमारे लिए हिंसा और घृणा के पात् बन जाते है । हजारों साल तक जातीय अपमान ए्वं घृणा से उतपीठड़त लोग आज सम्मान चाहते है I स्वणति समुदाय में गरीब से गरीब वयषकत को भी सामाजिक सतर पर दूसरों से सम्मान मिलता है , लेकिन आर्थिक दृषषट से सम्पन् दलित को उसकी जातीय पहचान के कारण व्यवहार में ्वैसा सम्मान नही मिलता है । इसलिए दलित की पीड़ा आर्थिक कम सामाजिक अधिक है । आर्थिक ठ्वकास होने पर वयषकत का रहन-सहन और जी्वनयापन के तौरतरीके बदल जाते है लेकिन धर्म और जातिगत समाज की नजरों में ्वह निम्न ही रहता है । जाठत्वाद की समसया मात् दलितों की समसया नही है , यह सम्पूर्ण समाज ए्वं राषट की समसया है । दलित मुषकत की समसया सारे देश के बहुजन की आ्वशयकता है ।
्वततिमान समय में गरीबी की रेखा से नीचे रहने ्वाली कुल 49 प्रतिशत जनता के मुकाबले दलितों की 70 प्रतिशत उस अतिदरिद्रता की हालत में रहती है । देश की कुल आबादी का 16 प्रतिशत होने के बाद भी दलितों के पास कुल खेती योगय जमीन का के्वल एक प्रतिशत हिससा ही है । 2011 की जनगणना के अनुसार दलितों में राषटीय साक्रता दर लगभग 62 प्रतिशत है । इनकी तीन-चौथाई जनसंखया ग्रामीण क्ेत्ों में रहती है तथा इतनी ही खेती के कायमो में लगी है । देश में हर घंटे में दो दलितों को हिंसक घटनाओं का शिकार होना पड़ता है ।
20्वीं सदी के दूसरे दशक से डा . आंबेडकर
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