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समता मूलक समाज की स्ािना में ही है राष्ट्र का हित

रयाजेश कुमयार शमया्ण

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लित चेतना एक ऐसी अ्वधारणा हैं जो आधुनिक मूलयों , सं्वैधानिक मानयताओं , सामाजिक नयाय और जनतांठत्क संरचनाओं से ठ्वकसित हुई हैं । इसमें धार्मिक जी्वन की ठ्वकृतियों के ठ्वरुद्ध मान्व की प्रतिषिा का चिनतन है । देश में सदियों से शोषित और सामाजिक मानयताओं से ्वंचित ्वगति में दलित चेतना के जो नए स्वर सुनाई पड़ रहे हैं , उसका सबसे बड़ा कारण शिक्ा का प्रचार प्रसार तथा राजनीतिक जागरुकता हैं । दलित चिनतन जहां देश के संठ्वधान में दलितों , आठद्वासियों , महिलाओं के उतपीडन के हजारों वर्षों की गाथा की समाषपत हेतु प्रदत् प्रा्वधान से रषकत लेता है , ्वहीं अपने पुरोधाओं की रचनाशीलता , बौद्धिकता ए्वं आनदोलनों से भी बहुत कुछ ग्रहण करता है ।
सामानय रूप से दलित भारतीय भाषाओं का एक प्रचलित शबद हैं जिसका सामानय अर्थ है - गरीब और उतपीठडत लेकिन सामाजिक , साठहषतयक तथा सांसकृठतक संदभमो में दलित शबद को एक ठभन् अर्थ मिल जाता है । इस शबद में छुआछूत , कर्मसिद्धानत और जातिगत श्ेणी का नकार निहित था । ्वततिमान ्वैश्वीकृत और आधुनिक युग में शिक्ा के ठ्वकास और ठ्वज्ान की प्रगति ने जनतांठत्क मूलयों को मजबूत ही बनाया है , जिसके कारण आज दलितों में चेतना का निरनतर संचार हो रहा है । इससे दलितों के प्रश्नों और इसके समाधान की भी लगातार कोशिश हो रही है । ्वैश्वीकरण ने ठनषशचत रूप से इनके जी्वन में काफी बदला्व लाए है , अब उनमें आत्मविश्वास भी दिखता है और अपने खोई हुई अषसमता को पहचानते हुए अपने अधिकारों को लेकर खुलकर बोलना प्रारंभ
कर दिया है । फिर भी देश के अनेक हिससों में दलितों को उनकी जाति के कारण अपमानित और प्रताडित करने के समाचार आए रहते हैं ।
कं्वल भारती ’’ दलित ठ्वमर्श की भूमिका ’’ नामक अपने लेख में लिखते है कि डा . आंबेडकर पहले भारतीय है , जिनहोंने इतिहास
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