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में आ रही बाधाओं के निदान के पक्धर थे । बेशक दोनों ही ठ्वठरषट हसताक्रों की सैद्धांतिक डगर अलग-अलग थी , लेकिन मंजिल तक पहुंचने का लक्य एक था । डलॉ हेडगे्वार हिनदू समाज को संगठित होने की आ्वाज मुखर कर रहे थे । उनका मकसद यह था कि हिनदू समाज जाति-भाषा और प्रांतीय भेदभा्व की संकीर्ण सीमाओं से निकल कर सभी पारसपरिक ठ्वद्रेष भुलाकर एकातमकता के मार्ग को एकजुट होकर प्रशसत करे । जातियों को संगठित करने में उनका यकीन नहीं था कयोंकि जातीयता हिनदू समाज की एकता में बाधक थी । इसी व्यवसथा के ठन्वारण के मद्ेनजर जातियां बंधन से ऊपर उठकर पारसपरिक समरसता कायम करने के ्वह प्रबल पक्धर थे । इसी शाश्वत दृषशटकोण के आलोक में राषटीय स्वयं से्वक संघ का सफर सतत जारी है । इस अभियान में दलित , आठद्वासी , ्वन्वासी , पिछड़े-अगड़े सभी शामिल हैं और समरसता की मिसाल पेश करने में कामयाब हुए हैं ।
स्वतंत्ता मिलने के बाद गांधी जी ने अपने
उदगार वयकत करते हुए कहा था कि स्वराज तो मिल गया पर अब हमें सुराज लगाया है । ऐसी हकीकत के आलोक से रूबरू करते हुए ठ्वचारक , चिंतक और राषटीय स्वयं से्वक संघ के दिगदर्शक पंडित दीनदयाल उपाधयाय ने बेबाक शैली में रेखांकित किया है कि अगर देश ठ्वकास कर रहा है और अगर इस देश के ठ्वकास की किरण हमारी सीढ़ी पर खड़े उस अंतिम वयषकत तक नहीं पहुंच रही तो देश का ठ्वकास बेमानी होगा । ठनषशचत ही इन दोनों ही महापुरषों ने अपने अपने उदगारों से देश समाज का समग्र ठ्वकास और मजबूत भठ्वषय बनाने की दिशा में न सिर्फ प्रेरक मशाल दिखाई थी , बषलक आगाह भी किया था । एक लम्बे अरसे तक सत्ा ठरठ्वरों से यह उदगार मुखर होते तो देखे गए लेकिन परदे के पीछे का सच यह भी बेनकाब करता रहा कि जमीनी धरातल पर इसे अमल में नहीं लाया गया । नतीजा सामने है ।
जाति की सीमाओं को तोड़ते हुए पारसपरिक समरसता की डगर पर सबका साथ-सबका ठ्वकास के उदघोष के साथ आगे बढ़ते हुए आज देश को एक ऐसा प्रधानमंत्ी नरेंद्र दामोदर दास मोदी के रूप में मिला है , जो सुराज लाने का गाँधी जी का सपना साकार करने और पंडित दीनदयाल के उदगार अंतिम पायदान पर खड़े वयषकत के ठ्वकास के लिए कृत संकलप होने का अहसास यथार्थ के धरातल से पूरी ठरद्त के साथ करा रहा है । भाजपा शासित राजयों में हाल में हुई दलित उतपीड़न की घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाये , काम होगी । लेकिन देश के प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी ने अपने कड़े रूख का अहसास भी कराया है । मार्ग बाधाओं से ठ्वचलित हुए बिना दलितों के समग्र ठ्वकास का उनका अभियान सतत जारी है और लक्य को हासिल करने के लिए भी कृत संकलप है ।
राजनीति के खेल का इसे प्रतीक कहा जायेगा कि मामूली मौका मिलते ही ठ्वकास की समग्र मुहिम की ह्वा निकलने की साजिशें शुरू हो जाती है । नेपथय के आगे पीछे से जारी खेल की भी दरअसल अपनी बेचैनी है । दलितों और
पिछड़ों की लड़ाई का दा्वा करने ्वाले ्वाम दल अब काफी पीछे छूट चुके हैं । इसकी ्वाम दलों ने कभी कलपना भी नहीं की थी । कांग्रेस की बैशाखी बनने और उसके साथ कनधा से कनधा मिलाकर चलने में उनहोंने किंचित परहेज नहीं किया । यही ्वह बिंदु हैं , जिसकी भरपाई करना ्वाम दलों के लिए फिलहाल संभ्व नहीं है । ्वगति शत्ु से हाथ मिलाने का कुपरिणाम है भरोसे का टूटना । इसी टूटे भरोसे की ्वजह से कांग्रेस और ्वाम दल अब राजनीति के किनारे पर आ कर खड़े हो गए हैं । दलित और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के ठ्वकास का ढोंग करने और निज हित साधकर अपने को सुदृढ़ करने के खेल का दौर समापत हो चुका है । अब सिकका उसी का चलेगा जो दलितों के समग्र ठ्वकास की इबारत लिखेगा । इस कसौटी पर प्रधानमंत्ी नरेंद्र मोदी का संकलप सबका साथ-सबका ठ्वकास , वयषकत पैमाने पर खरा उतरने का सहज ही अहसास करा देता है ।
दलित चिंतन ठ्वकास के परिप्रेशय में लोकमानय तिलक के हिमालय सरीखे वयषकतत्व- ठ्वचार-कृतित्व को कदापि अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । स्वतंत्ता मिलने के लगभग तीन दशक पहले ही अपने दृढ संकलप और दूर दृषषट इरादे को ्वकत के पन्ों पर अंकित कर देने मिसाल उनहोंने कायम की थी । दो टूक शबदों में उनहोंने ठ्वद्रोही बिगुल बजाया था कि यदि ईस्वर असपृसयता को मानेगा तो मैं उसके अषसतत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं हूँ । ठनषशचत ही लोकमानय तिलक एक बेजोड़ शिखर हसताक्र थे । उनका निधन भले ही 1 अगसत 1920 को भले ही हो गया हो , लेकिन ्वह भारतीय मानस पटल पर अपनी अमिट छाप के साथ साथ युगों तक अमर रहेंगे । इस कड़ी में एक शास्वत बात बाबा साहब अम्बेडकर ने भी कही थी , ्वह यह कि देश की राजनीति में शीर्ष सथान पर बैठे लोग चरित्रवान होने चाहिए । सम्पूर्ण समाज के उतकषति का मनोभा्व और वयषकतगत स्वाथमो की शूनयता ही श्ेषि चररत् का लक्ण और इसी से ही दलित समाज का समग्र कलयाण और ठ्वकास संभ्व है । �
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