Aug 2024_DA | Page 40

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करने की मूल मंशा यह थी कि दलित समाज का प्रतिनिधि ही सही अथमो में दलित समाज की समसयाओं , उनके हितों , पीड़ाओं और चिंताओं को समझ सकता है और उनके समाधान ठन्वारण की दिशा में निषिा और ईमानदारी से पहल कर सकता है । स्वाल यह पैदा होता है कि कया दलित नेतृत्व ऐसा कर पा रहा है ? इसका ज्वाब खोजने पर जो हकीकत सामने आती है , ्वह बेहद निराश करने ्वाली है । मिसालें एक नहीं अनेक हैं , जिनके आलोक में इस हकीकत को जांचा , परखा और देखा जा सकता है । कहना गलत नहीं होगा कि दलित नेतृत्व सिर्फ दलितों के सहारे निज ठ्वकास का ्वैभ्वराली ग्राफ रचने में कामयाब हुआ है ।
दलितों के हितों-हकों और समग्र ठ्वकास की उसे किंचित पर्वाह नहीं है । दलितों के मसीहा माननीय कांशीराम ने दलित आंदोलन की धार पैनी कर दलितों को ठ्वकास की डगर पर आगे बढ़ने की जुझारू मिसाल पेश की । उनकी धारदार पैनी रणनीति के फलस्वरूप बसपा देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्र प्रदेश के सत्ा सिंघासन तक पहुंचने में कामयाब हुई । यह कांशीराम के रणनीतिक कौसल का ही कमल था कि पहले उनहोंने गठबंधन की नीति अपनायी और फिर आगे चलकर अकेले दम पर बसपा ऐतिहासिक जीत का डंका बजाते हुए सत्ा पर आसीन होने में कामयाब रही । तथयों के आलोक में देखा जाये तो 1991 में 9.4 फीसदी ्वोट हासिल कर राजय सतर पर जहां बसपा ने राजनीति में अपनी प्रतिभागिता दर्ज करायी थी , उसी बसपा ने 2007 में 30.7 फीसदी ्वोट लेकर भारी बहुमत से अपनी ठ्वजय का परचम लहराया था । बसपा सुप्रीमो माया्वती ने अपनी ठ्वठ्वध आयामी कामयाबी को रेखांकित किया । नौकरशाही और सूबाई परिदृशय पर दलितों की उपषसथठत और पहचान को बढ़ा्वा देने की रणनीति को भी उनहोंने अमली जामा पहनाया । दलितों के राजनीतिक और आर्थिक कद को भी उनहोंने बढ़ाया , लेकिन आम दलितों के हालत में कोई खास फर्क नहीं आया । सत्ाप्रसथ से लोकलुभा्वन किये गए अनेक
प्रयासों के बा्वजूद भूमि और मजदूरी के झगड़ों में कारगर भूमिका निभाने और असमानता -गरीबी ठन्वारण की नीतियों को अमलीजामा पहनाने में बसपा ठ्विल रही । प्रचंड बहुमत से सत्ा में आयी बसपा को 2012 के ठ्वधानसभा चुना्व में पराजय का मुंह देखना पड़ा ।
दलित नेतृत्व के मूल सिद्धांत में आये बदला्वों का ही नतीजा कहा जायेगा कि बसपा संसथापक कांशीराम के दौर के कई जुझारू और भरोसेमंद दलित नेता बसपा से बहार कर दिए गए और कुछ असंतुषट हो कर पाटटी से ठ्वमुख हो गए । राजनीतिक ठ्वशलेषकों का मानना है कि जाति ठ्वरेष के हित साधन और पाटटी ठ्वरेष के अहम के कारण 2017 के उत्र प्रदेश के बिधानसभा चुना्व में भाजपा की प्रचंड जीत और बसपा की शर्मनाक पराजय हुई । इसके मूल में गैर जाट्व दलित जातियों द्ारा बसपा को जात्वो की पाटटी कहकर भाजपा को ्वोट देने का सच निहित है । देखा जाये तो जातिगत रोग से लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां ग्रसत हैं । भाजपा बेशक सबका साथ-सबका ठ्वकास
का अहसास करा रही है । ठनषशचत ही उसे इस संकलप सूत् का राजनीतिक लाभ भी हासिल हुआ है ।
्वैसे देखा जाये तो यह बात सच ही लगती है कि दलितों के हितों की लड़ाई लड़ने के मोचचे पर तैनात राजनीतिक दल बाबा साहब अम्बेडकर आंबेडकर के मूलभूत सिद्धांत से भटक गए हैं । बाबा साहब अम्बेडकर का दलितों का समग्र ठ्वकास और एक समरस भारत बनाने का सपना था । इसको मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उनहोंने पूरे मनोयोग के साथ एक सामाजिक क्रांति का सूत्पात् भी किया । हिनदू मुषसलम एकता के परिप्रेक्य में डलॉ अम्बेडकर का नजरिया किसी भ्रम का शिकार नहीं है । समरसता के प्रति उनके ठ्वरेष लगा्व का ही इसे घोतक कहा जायेगा कि मुषसलम कट्टरपंथियों के ठ्वरुद्ध उनका रुख बेहद कठोर था । डलॉ अम्बेडकर के समरस भारत में सनदभति में राषटीय स्वयं से्वक संघ की भूमिका को भी कदापि नाकारा नहीं जा सकता है । डलॉ अम्बेडकर और डलॉ केर्व बलिराम हेडगे्वार , दोनों ही हिनदू समाज के संगठित होने
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