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डया . विजय सोनकर शयास्त्ी fo
श्व के सबसे बड़े लोकताषनत्क देश भारत में जब भी चुना्व या सत्ा परर्वततिन जैसे बड़े मुद्े का स्वाल आता है तो हर राजनीतिक दल सबसे पहले दलित ्वगति के कलयाण की बात करता हैI स्वतंत्ता के 70 साल बाद भी देश के तमाम दलित नेता अपनी समसयाओं का समाधान करने के लिए अकसर ठक्ठतज से ऊपर उठते हैं और एक सुर में दलित आंदोलन करने के लिए एकजुट हो जाते हैं । ऐसे अनेकों दलित आंदोलन के उपरांत आज भी प्रश्न यही उठता है कि कया भारत का दलित समाज अपनी सभी समसयाओं का समाधान करने में सफल हो पाया है ? या फिर दलित कलयाण के नाम पर होने ्वाले दलित आंदोलन अपनी मूल राह से भटक गए हैं या फिर दलितों के नाम पर होने ्वाले आंदोलन महज सत्ा हासिल करने के एक उपाय से जयादा और कुछ नहीं हैं ?
भारतीय सनातन हिनदू समाज पर दृषषट डाली जाए तो ्वततिमान समय में दलित समाज में जिन जातियों को रखा जाता है , उनके बारे में निःसंदेह यह कहना अनुचित नहीं लगता कि भारत पर सैकड़ों वर्षो तक राजय करने ्वाले ठ्वदेशी आक्रांताओं ने यहां की सामाजिक- सांसकृठतक समृद्धि को लूटने-खसोटने और अपनी सत्ा को बनाए रखने के लिए पूरे हिनदू समाज को ठछन्-ठभन् करके भारी संखया में हिनदुओं को लूट-खसोट कर भारी दमन ए्वं दालान के उपरांत पददलित ( निम्न ) बनाया । इसके लिए उनहोंने सबसे पहले भारत के इतिहास को नषट कर दिया , जिससे कुछ समय उपरांत यहां के लोग यह भूल जाए कि ्वह किस ्वंश या गोत् के हैं ।
सार्थक दलित आंदोलन की आवश्यकता
22 vxLr 2024