वयस्ततव
शैषिवणक आदि सतरों पर रचनातमक कार्यक्रम तथा संगठित अभियान का आग्ह किया ।
डा. आंबेडकर हिनदू समाज तथा हिनदू धर्म की उन आधारभूत मानरताओं के विरूधि थे, जिनके कारण असपृशरता जैसी संकीर्णता का जनम हमोता है । उनका मानना था कि हिनदू समाज में सवतंत्रता, समानता तथा नरार पर आधारित वरवसथा सथावपत करने के लिए कठमोर नियमों में संशमोधन आवशरक है । उनहोंने कहा कि इसके लिए उन शासत्रों कमो अधिकारिक नहीं माना जाना
चाहिए जमो सामाजिक अनरार का समर्थन करते है । डा. आंबेडकर का मानना था कि हिनदू समाज के उतथान के लिए जातीय बंधन समापत किया जाना आवशरक है । उनके मत में इसके लिए यह आवशरक है कि समाज के विभिन्न जातियों के लमोगों के मधर अनतजा्यतीय विवाह हमोने लगेगा तमो जाति वरवसथा का बंधन सवत: शिथिल हमोने लगेगा, ्रोंकि विभिन्न जातियों के मधर र्त के मिलने से अपनतव की भावना पैदा हमोगी । उनहोंने सवरं अनतजा्यतीय विवाहों तथा सहभमोजों कमो
प्रमोतसावहत किया । जब कभी इस प्रकार के अवसर उनहें मिलते तमो वह उनमें अवशर ही सषममवलत हमोते थे । डा. आंबेडकर का विशवास था कि दलितों के उतथान में केवल उच् वणवो की सहानुभूति और सद्ावना ही पर्यापत नहीं है । उनका मत था कि दलितों का तमो वासतव में तब उतथान हमोगा जबकि वह सवरं सक्रिय तथा जागृत होंगे । इसलिए उनहोंने घमोषणा की कि वशवषित बनमो, आन्दोलन चलाओ और संगठित रहमो ।
दलित वर्ग की वशषिा के बारे में डा. आंबेडकर
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