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चातुर्वर्ण पदसमोपानीय रूप में वगथीकृत है । जातीय आधार पर वगथीकृत इस वरवसथा कमो वरवहार में वरष्तरों द्ारा परिवर्तित करना असमभव है । इस वरवसथा में कार्यकुशलता की हानि हमोती है, ्रोंकि जातीय आधार पर वरष्तरों के कारवो का पूर्व में ही निर्धारण हमो जाता है । यह निर्धारण भी उनके प्रवशषिण अथवा वासतविक षिमता के आधार पर न हमोकर जनम तथा माता पिता के सामाजिक सतर के आधार पर हमोता है । इस वरवसथा से सामाजिक सथैवतकता पैदा हमोती है, ्रोंकि कमोई भी वरष्त अपने वंशानुगत वरवसथा का अपनी सवेचछा से परिवर्तन नहीं कर सकता । यह वरवसथा संकीर्ण प्रवृतियों कमो जनम देती है, ्रोंकि हर वरष्त अपनी जाति के अषसततव के लिए अधिक जागरूक हमोता है, अनर जातियों के सदसरों से अपने समबनध दृढ़ करने की कमोई भावना नहीं हमोती है । नतीजन उनमें राष्ट्रीय
जागरूकता की भी कमी उतपन्न हमोती है । जाति के पास इतने अधिकार हैं कि वह अपने किसी भी सदसर से उसके नियमों की उललंघना पर दषणडत या समाज से बहिष्कृत कर सकती है ।
इस प्रकार डा. आंबेडकर ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि जाति-वरवसथा भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी विकृति है, जिसके दुखभाव समाज के लिए बहुत ही घातक हैं । जाति वरवसथा के कारण लमोगों में एकता की भावना का अभाव है, अत: भारतीयों का किसी एक विषय पर जनमत तैयार नहीं हमो सकता । समाज कई भागों में विभ्त हमो गया । उनके अनुसार जाति वरवसथा ने न केवल हिनदू समाज कमो दुष्प्रभावित नहीं किया अपितु भारत के राजनीतिक, आर्थिक तथा नैतिक जीवन में भी जहर घमोल दिया ।
डा. आंबेडकर ने हिनदू समाज में प्रचलित
असपृशरता कमो अनरारपूर्वक मानते हुए प्रबल विरमोध किया । उनहोंने विभिन्न ऐतिहासिक उदाहरणों से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि असपृशरता के बने रहने के पीछे कमोई तार्किक, सामाजिक अथवा वरावसायिक आधार नहीं है । अत: उनहोंने इस वरवसथा का जमोरदार शबदों में खंडन किया ।
डा. आंबेडकर का दृषष्टिकमोण था कि यदि हिनदू समाज का उतथान करना है तमो असपृशरता का जड़ से निराकरण आवशरक है । डा. आंबेडकर ने असपृशरता के निराकरण के लिए केवल सैधिांवतक दृषष्टिकमोण ही प्रसतुत नहीं किया अपितु उनहोंने अपने विभिन्न आन्दोलनों एवं कारगों से लमोगों में चेतना जाग्त करने एवं इसके निराकरण के लिए विभिन्न सुझाव भी प्रेरित किए । उनहोंने असपृशरता निराकरण के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक,
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