April 2024_DA | Page 48

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सामाजिक क्रांति के जनक-ज्योतिबा फु ले

`रतीय सामाजिक कांति के जनक

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कहे जाने वाले महातमा जयोतिबा
फुले का जनम 11 अप्ैल 1827 को महाराषट्र के सातारा जिले में माली जाति के एक परिवार में हुआ था । वे एक महान विचारक , कार्यकर्ता , समाज सुधारक , लेखक , दार्शिनक , संपादक और कांतिकारी थे । उनहोंने जीवन भर निम्न जाति , महिलाओं और दलितों के उदार के लिए कार्य किया । इस कार्य में उनकी धर्मपत्ी सातवरिीबाई फुले ने भी पूरा योगदान दिया । महातमा फुले का बचपन अनेक कठिनाइयों में बीता । वे महज 9 माह के थे जब उनकी मां का देहांत हो गया । आर्थिक तंगी के कारण खेतों में पिता का हाथ बंटाने के लिए उनहें छोटी उम् में ही पढ़ाई छोडनी पडी । लेकिन पडोतसयों ने उनकी प्तिभा का पहचाना और उनके कहने पर पिता ने उनहें सकॉतटश मिशनस हाई सकूल में दाखिला करा दिया । मारि 12 वर्ष की उम् में उनका विवाह सातवरिीबाई फुले से हो गया ।
जयोतिबा के जीवन में महतवपूर्ण मोड वर्ष 1848 में आया जब वे अपने एक रिाह्मण तमरि की शादी में हिससा लेने के लिए गए । शादी में दूलहे के रिशिेदारों ने निम्न जाति का होने के कारण उनका अपमान किया । इसके बाद उनहोंने तय कर लिया कि वे सामाजिक असमानता को उखाड फेंकने की दिशा में कार्य करेंगे कयोंकि जब तक समाज में कसरियों और निम्न जाति वालों का उतथान नहीं होगा जब तक समाज का विकास असंभव है । 1791 में थॉमस पैन की किताब ' राइटस ऑफ मैन ' ने उनहें बहुत प्भावित किया । समाजोतथान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए जयोतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ ' सतयशोधक समाज ' नामक
संसथा का निर्माण किया । वे सवयं इसके अधयक् थे और सातवरिीबाई फुले महिला विभाग की प्मुख । इस संसथा का मुखय उद्ेशय शूद्रों और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुकि कराना था । इस संसथा के माधयम से उनहोंने वेदों को ईशवर रचित और पतवरि मानने से इंकार कर दिया । उनका तर्क था कि यदि ईशवर एक है और उसी ने सब मनुषयों को बनाया है तो उसने केवल संस्कृत भाषा में ही वेदों की रचना कयों की ? उनहोंने इनहें रिाह्मणों द्ारा अपना सवाथमा तसद करने के लिए लिखी गई पुसिकें कहा ।
सतय शोधक समाज की शाखाएं मुमबई और पुणे के गांवों और कसबों में खोली गई । एक दशक के अंदर इस संगठन ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक कांति का संचार कर दिया , जिसके चलते कई लोगों ने शादी और नामकरण के लिए पंडे पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया । ऐसे में इन लोगों को धमकाया गया कि बिना संस्कृत के उनकी प्ाथमाना ईशवर तक नहीं पहुंचेगी । तब फुले ने सनदेश दिया कि जब तेलगु , तमिल , कन्नड़ , बांगला में प्ाथमाना ईशवर तक पहुंच सकती है , तो अपनी भाषा में की गई प्ाथमाना कयों नहीं पहुंचेगी । कई मौकों पर फुले ने खुद पुरोहित बन संसकार संपन्न करवाए और ऐसी प्था चलाई , जिसमें पिछड़ी जाति का वयककि ही पुरोहित चुना जाने लगा ।
उस समय ऐसा करने की हिममि करने वाले वे पहले समाजशासरिी और मानवतावादी थे । लेकिन इसके बावजूद वे आकसिक बने रहे । उनहोंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया और चतुवमाणशीय जाति वयवसथा को ठुकरा दिया । इस संसथा ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया
और शैक्तणक और धार्मिक नेताओं के रूप में रिाह्मण वर्ग को सवीकार करने से इंकार कर दिया । सतयशोधक समाज के आंदोलन में इसके मुखपरि दीनबंधु प्काशन ने भी महतवपूर्ण भूमिका निभाई । कोलहापुर के शासक शाहू महाराज ने इस संसथा को भरपूर वित्ीय और नैतिक समर्थन प्दान किया ।
महातमा फुले ने दलितों पर लगे अ्टूि के लांछन को धोने और उनहें बराबरी का दर्जा दिलाने के भी प्यत् किए । इसी दिशा में उनहोंने दलितों को अपने घर के कुूंए को प्योग करने की अनुमति दे दी । शूद्रों और महिलाओं में अंधविशवास के कारण उतपन्न हुई आर्थिक और सामाजिक विकलांगता को दूर करने के लिए भी उनहोंने आंदोलन चलाया । उनका मानना था कि यदि आजादी , समानता , मानवता , आर्थिक नयाय , शोषणरहित मूलयों और भाईचारे पर आधारित सामाजिक वयवसथा का निर्माण करना है तो असमान और शोषक समाज को उखाड फेंकना होगा ।
जयोतिबा के कार्य में उनकी पत्ी ने बराबर का योगदान दिया । यद्यपि वे पढ़ी−लिखी नहीं थीं और शादी के बाद जयोतिबा ने ही उनहें पढ़ना− लिखना सिखाया । किनिु इसके बाद उनहोंने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा । उस समय लडतकयों की दशा अतयंि शोचनीय थी और उनहें पढ़ने लिखने की अनुमति नहीं थी । इस रीति को तोडने के लिए जयोतिबा और सातवरिीबाई ने 1848 में लडतकयों के लिए एक विद्यालय की सथापना
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