बनधुिा बढ़ाने के लिए दृढ़ संकलप होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर , 1949 ई . ( मिति मार्गशीर्ष शुकला सपिमी , संवत् दो हजार छह तवकमी ) को एतदद्ारा इस संविधान को अंगीककृि , अधि-नियमित और आतमातपमाि करते हैं ।’’
हहथिदू एकता के प्रबल समर्थक
डा . आंबेडकर की जीवनी लिखने वाले सीबी खैरमोड़े ने उनके शबदों को उदृत करते हुए लिखा है कि ” मुझमें और सावरकर में इस प्श्न पर न केवल सहमति है , बकलक सहयोग भी है कि हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए और हिंदुओं को अनय मजहबों के आकमणों से आतमरक्ा के लिए तैयार किया जाए ।“ डा . आंबेडकर एक ओर जहां हिंदू समाज की बुराइयों पर चोट करते हैं , वहीं वह हिदुओं की एकजुटता का समर्थन करते हैं । महार मांग वतनदार सममेलन , सिन्नर ( नासिक ) में 16 अगसि ,
1941 को बोलते हुए डा . आंबेडकर कहते हैं , ‘‘ मैं इन तमाम विशों में हिंदू समाज और इसकी अनेक बुराइयों पर तीखे एवं कटु हमले करता रहा हूं , लेकिन मैं आपको आशवसि कर सकता हूं कि अगर मेरी निषिा का उपयोग बहिष्कृत विशों को कुचलते के लिए किया जाता है तो मैं
अंग्ेजों के खिलाफ हिंदुओं पर किए हमले की तुलना में सौ गुना तीखा , तीव्र एवं प्ाणांतिक हमला करूूंगा ।“
जातिगत भेदभाव मिटाने पर जोर
हिनदू समाज में जातिगत भेदभाव हुआ है और इसका उनमूलन होना चाहिए , इसको लेकर संघ भी सहमत है और डा . आंबेडकर भी जाति से मुकि अविभाजित हिनदू समाज की बात करते थे । 1942 से ही संघ हिंदुओं में अंतरजातीय विवाह का पक्धर रहा है और हिंदुओं की एकजुटता को लेकर प्यासरत है । बाबासाहब
का भी मत यही था कि असपृशयिा दूर हो और शोषितों और वंचितों को समानता का अधिकार मिल जाए ।
भारतीय संस्कृ ति में विश्ास
धर्म और संस्कृति मामले में भी संघ और डा . आंबेडकर के बीच वैचारिक सामयिा है । संघ भी धर्म को मानता है और बाबासाहब भी धर्म को मानते थे । इसके साथ ही बाबा साहब इसलाम और इसाईयत को विदेशी धर्म मानते थे और संघ का विचार भी समान है । डा . आंबेडकरबा धर्म के बिना जीवन का अकसितव नहीं मानते थे , लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल सवीकार्य था । इसी कारण उनहोंने ईसाइयों और इसलाम के मौलवियों का आग्ह ठुकरा कर बौद धर्म अपनाया कयोंकि बौद भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है ।
संस्कृ त को राजभाषा बनाने का समर्थन
राजभाषा संस्कृत को बनाने को लेकर भी उनका मत सपषट था । 10 सितंबर 1949 को डा . बी . वी . केसकर और नजीरुद्ीन अहमद के साथ मिलकर डा . आंबेडकर ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्सिाव रखा था , लेकिन वह पारित न हो सका । संस्कृत को लेकर राषट्रीय सवयंसेवक संघ का विचार भी कुछ ऐसा ही है ।
आयशों का भारतीय मूल का होने पर एकमत
डा . आंबेडकर मानते थे कि आर्य भारतीय थे और आर्य किसी जाति का नाम नहीं था । उनका यह दृढ विशवास था कि ‘ शूद्र ’ दरअसल क्तरिय थे और यह लोग भी आयवो के समाज के ही अंग थे । उनहोंने इसी विषय पर एक पुसिक लिखी थी- “ शूद्र कौन थे ”। बाबासाहब ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नसल के ही थे । ऋगवेद , रामायण और महाभारत से उदरण देकर उनहोंने संसार को बताया कि आर्य सिर्फ गौर वर्ण के ही नहीं , बकलक शयाम वर्ण के भी थे । �
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