April 2024_DA | Page 39

रहने वाली कुल 49 प्तिशत जनता के मुकाबले दलितों की 70 प्तिशत उस अतिदरिद्रता की हालत में रहती है । देश की कुल आबादी का 16 प्तिशत होने के बाद भी दलितों के पास कुल खेती योगय जमीन का केवल एक प्तिशत हिससा ही है । 2011 की जनगणना के अनुसार दलितों में राषट्रीय साक्रता दर लगभग 62 प्तिशत है । इनकी तीन-चौथाई आबादी ग्ामीण क्ेरिों में रहती है तथा इतनी ही खेती के कायवो में लगी है । देश के बारह प्देशों में ्टूआ्टूि प्चलन में है और अनय राजयों में इसका असर कुछ कम हुआ है । देश में हर घंटे में दो दलितों को हिंसक घटनाओं का शिकार होना पड़ता है और प्तयेक दिन दो दलितों की हतया कर दी जाती है एवं दो दलित घरों में आग लगा दी जाती है ।
20वीं सदी के दूसरे दशक से डा . आंबेडकर ने निरनिर दलित मुककि और मानवाधिकार के मामले उठाकर सरकार व पूरे देश का धयान
आकर्षित किया । महाड़ एवं कालाराम मंदिर प्करण , गोलमेज सममेलन , पूना पैकट , सविंरि मजदूर दल , अनुसूचित जाति संघ , संविधान सभा से होते हुये देश के प्थम कानून मंरिी और उससे तयािपरि का सफर विपरीत हालात से गुजरता हुआ 14 अक्टूबर 1956 को बौद धर्मानिरण के साथ ही पूर्ण हुआ । उनहोने कांग्ेस तथा महातमा गांधी की अ्टूिोदार समबनधी कायमाप्णाली की धतजियाॅ उड़ाते हुए 1945 में ’’ कांग्ेस और गांधी ने अ्टूिों के लिए कया किया ” नामक पुसिक के प्थम पृषि पर लिखा - ’’ हमारा मालिक बनने से तुमहे फायदा होगा पर तुमहारा दास बनने से हमें कया फायदा हो सकता है ।’’
प्तसद इतिहासकार सुमित सरकार लिखते है कि - ’’ इतिहास गवाह है कि हरिजन आनदोलन का जनम ही दलित आनदोलन को दबाने के लिए हुआ था लेकिन समय के प्वाह में दलित आनदोलन ने हरिजन आनदोलन के सामाजिक और धार्मिक प्ककृति के मुद्ों को गौण साबित करते हुए राजनैतिक एवं आर्थिक प्तिनिधितव के सवालों पर अपने आनदोलन की बिसात तैयार की । एक तरह से अमबेडकर के आतमसममान आनदोलन ने दलित वंचित समाज में एक चिंगारी का काम किया और इनमें राजनीतिक चेतना पैदा की ।“ सामाजिक हालात के विरोधाभास की वयाखया करते हुए डा . आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था - भारतीय समाज में दो बातों का पूर्णतः अभाव है । इनमे से एक समानता है । सामाजिक क्ेरि में हमारे देश का समाज विशीककृि असमानता के तसदानि पर आधारित है जिसका अर्थ है कुछ लोगों के लिए उतथान एवं अनयों की अवनती । आर्थिक क्ेरि में हम देखते है कि समाज के कुछ लोगों के पास अथाह समपति है , जबकि दूसरी ओर असंखय लोग घोर दरिद्रता के शिकार है । 26 जनवरी 1950 को हम लोग एक विरोधाभासी जीवन में प्वेश करने जा रहे है । राजनीति के क्ेरि में हमारे बीच समानता होगी पर अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक संरचना के चलते एक वयककि एक मूलय के तसदानि को असवीकार करना जारी रखेंगें । हम कब तक इस
विरोधाभासी जीवन को जीते रहेगें , अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को असवीकार करते रहेगें ?
भारतीय समाज के निम्नतम सोपान पर जीवन यापन करने वाले समुदाय की सामाजिक आर्थिक समसयायों का जाति वयवसथा से प्तयक् समबनध है कयोंकि यहीं वयवसथा सामाजिक आर्थिक संरचना एवं संसाधनों से जुड़ी है । डा . आंबेडकर ने कहा था कि दुनिया के अनय देशों में सामाजिक कांतियां होती रही हैं , पर भारत में ऐसी सामाजिक काकनि कयों नही हुई । इसके लिए उनहोंने जाति प्था की बुराईयों को जिममेदार माना ।
भारतीय समाज की संरचना बहुआयामी होने के साथ-साथ जटिल है । इस सामाजिक संरचना में कुछ ऐसे तत्व हैं , जो शोषित वर्ग के विरुद जाते हैं । जाति प्था एक ऐसा ही तत्व है , जो सामाजिक एकता , सामाजिक समरसता और सार्थक सामाजिक सरोकारों के विरुद जाता है । भारतीय समाज की धार्मिक परंपराओं में जाति- वयवसथा को जिस प्कार महिमामंडित किया गया है , उसके कारण समाज में कुछ ऐसी बदमूल धारणा विकसित हो गई हैं , जो सामाजिक सद्ाव में बाधक हैं । जाति-भेद के कारण समाज का एक विशेष वर्ग , जो बहुसंखयक है , वह आज के वैशवीकरण के दौर में भी असमानता , शोषण , उपेक्ा और अपमान को झेल रहा है ।
यह वर्ग आर्थिक शोषण का शिकार तो हैं ही , सामाजिक उपेक्ा और अपमान का दंश भी झेल रहा है । सपषट है , अभी भी दलित चिनिन को विभिन्न झंझावतों से होते हुए विकसित होना है । दलितों में यदि सवातभमान है , मुककि का जजबा है तो अपनी सामाजिक और आर्थिक सिर को उच्चतम सोपान तक पहुंचाने का हर संभव प्यास करेंगें । इस कार्य में मीडिया और साहितय को भी सकारातमक रुख अपनाना होगा और लोक कलयाण की अवधारणा के तहत् जनमानस में यह चेतना फैलानी होगी कि एक समता मूलक समाज और नागरिक समाज की सथापना में ही राषट्र का हित नीहित है और जिसके फलसवरुप देश की बहुत सी समसया अपने आप दूर हो जाएगी । �
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