April 2024_DA | Page 13

में बाधा पडेिी । इसीलिए चातुवमाणयमा में अंतर्निहित सामाजिक और आर्थिक बंधनों को असवीकार करना आर्थिक नयाय के लिए पूर्व शर्त है और आर्थिक लोकतंरि की तसतद के लिए एक अतयावशयक मद है ।
डा . आंबेडकर कहते हैं कि लोकतंरि के लिए एक ' सार्वजनिक अंतःकरण ' ( पकबलक कॉनशस ) की आवशयकता होती है । उनहोंने एक जगह कहा है कि " हम लोग दतक्ण अफ्ीका की बात करते हैं , परंतु मुझे मन-ही-मन आशचयमा होता है कि अफ्ीका में भेदभाव के विषय में बोलते समय कया हमें यह समरण रहता है कि अपने यहां गांव-गांव में एक दतक्ण अफ्ीका है ? यह सतय पररकसथति है । खुद जाकर देखें तो समझ पाएंगे । इसका कारण है I अपने यहां सार्वजनिक अंतःकरण का अभाव । अनयाय से उतपीतडि
अलपसंखयकों को इस अनयाय से बचाने के लिए किसी से भी सहायता नहीं मिल पाती । इसीलिए कांतिकारी प्वृतत्याँ पनपती हैं और लोकतंरि के लिए खतरा उतपन्न हो जाता है ।"
इस प्कार सामाजिक और आर्थिक मदों में समान अवसर , बंधुभाव पर आधारित समाज वयवसथा , नयाय मिलने का विशवास और सार्वजनिक अंत : करण इन सब को डा . आंबेडकर सामाजिक-आर्थिक लोकतंरि के लिए अतयावशयक पूर्व शितें मानते हैं , जो उनका सवप्न था । इस पृषिभूमि में डॉ . आंबेडकर द्ारा प्सिातवि संवैधानिक प्ावधानों को परखना अतयंि आवशयक है । सवैधानिक सतर्कताएं 1947 में डा . आंबेडकर ने संविधान समिति को एक ज्ञापन प्सिुि किया , जिनमें उनहोंने बताया कि अनुसूचित जातियों की सुरक्ा के लिए संविधान में कया-कया प्ावधान होने आवशयक हैं । इस ज्ञापन का शीर्षक था ' राषट्र एवं अलपसंखयक '। इस ज्ञापन में उनहोंने संसदीय लोकतंरि को बरकरार रखने की आवशयकता पर बल देने के साथ यह भी सुझाव दिया कि संसद् को यह अधिकार न हो कि वह साधारण बहुमत से राषट्र समाजवाद पर रोक लगाए , उसमें परिवर्तन करे या उसे निरसि कर दे , इसलिए राषट्र समाजवाद का कार्यानवयन राषट्र के संविधान के माधयम से ही होना चाहिए । डा . आंबेडकर की धारणा थी कि केवल ऐसा होने पर ही संसदीय लोकतंरि बनाए रखने , समाजवाद की सथापना करने और तानाशाही से बचने के तीन लक्य प्ापि किए जा सकेंगे । बाद में संविधान समिति के समक् भाषण करते हुए उनहोंने कहा कि नया संविधान बनाने के दो धयेय थे-
-राजनीतिक लोकतंरि का सवरूप तनकशचि करना ।
-आर्थिक लोकतंरि यही हमारा उद्ेशय है , ऐसा ऐलान करना । कोई भी सरकार सत्ा में हो , वह आर्थिक लोकतंरि सथातपि करने के लिए कटिबद रहे , यह घोषित करना । इस प्कार आर्थिक लोकतंरि की संकलपना भारत के संविधान में आरंभ ही से अंतर्भूत की गई थी ।
इस संकलपना को सपषट करते हुए डा . आंबेडकर कहते हैं , " लोगों का यह विशवास है कि आर्थिक लोकतंरि अनेक प्कार से सथातपि किया जा सकता है । कुछ लोग समझते हैं कि परम वयककिवाद लोकतंरि की सर्वश्रेषि प्कार है , तो कुछ यह मानते हैं कि समाजवादी राषट्र द्ारा ही लोकतंरि प्ापि किया जा सकता है । आर्थिक लोकतंरि की सथापना का एकमेव मार्ग सामयवाद ही है , ऐसा कुछ और लोगों का मत है । परंतु " एक तरल और प्वाही धारणा को जकडकर रखने के प्यास ठीक नहीं है । आर्थिक लोकतंरि एक परिवर्तनशील संकलपना है , जो समय और पररकसथति के साथ-साथ बदलती रहती है ।" इसीलिए आर्थिक लोकतंरि की नींव रखने के लिए उनहोंने इसे राषट्र के मार्गदर्शक सिदांिों के अंतर्गत संविधान में सकममतलि कराए जाने का आग्ह किया । राषट्र के मार्गदर्शक सिदांिों का संविधान में समावेश आवशयक तो था , लेकिन आर्थिक लोकतंरि की सथापना के लिए काफी नहीं , इसे डा . आंबेडकर अच्ी तरह समझते थे । इसीलिए संविधान को अपनाते समय किए गए अपने भाषण में उनहोंने कहा था-
" 26 जनवरी , 1950 को हम एक परसपर विरोधी सवरूप की जीवनप्णाली अपनाने जा रहे हैं । हमारे राजनीतिक जीवन में समता होगी , परंतु आर्थिक और सामाजिक जीवन में विषमता होगी । राजनीति में एक वयककि एक मत है और प्तयेक मत का मूलय एक-सा है , यह हम सवीकार कर लेंगे ; तकूंिु अपना सामाजिक ढाँचा कुछ ऐसा है कि सभी लोग समान हैं , यह हम सवीकार नहीं कर पाएँगे । कब तक हम ऐसा परसपर विरोधी जीवन जीते रहेंगे ? कब तक हम अपने आर्थिक और सामाजिक जीवन में समानता को ठुकराते रहेंगे ? यदि बहुत समय तक यह जारी रहे तो अपना राजनीतिक लोकतंरि संकट में पड जाएगा । इस असंगति को यथाशीघ्र मिटाना होगा , वरना असमानता का शिकार वर्ग द्ारा राजनीतिक लोकतंरि की इमारत को ही तहस-नहस कर दिया जाएगा ।"
( पुस्तक डा . आंबेडकर : आर्थिक विचार एवं दर्शन से साभार )
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