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सधन हो या निर्धन । और संभवतः सधनों की अपेक्ा निर्धनों की संखया कहीं अधिक होती है । अगर हमने बहुतों की आवाज को निर्णायक नियुकि किया है तो ऐसा भी संभव है कि यदि अलपसंखयक ' सधन ' वर्ग सवेच्ा से अपने आप अपनी विशेष सुविधाएं नहीं छोड दे तो उसमें और समाज के निचले सिर के वर्ग में अंतर बढ़ता जाएगा , जिससे लोकतंरि नषट होकर उसके सथान पर कुछ और ही खडा हो जाएगा । यदि आप विशव के अलग-अलग सथानों में लोकतंरि के इतिहास का निरीक्ण करें तो यह ज्ञात होगा कि इन सामाजिक शिशों की पूर्ति न होने के कारण वहां लोकतंरि का विनाश हुआ है । इस संबंध में मेरे मन में रत्ीभर भी संदेह नहीं है ।"
वह विशव के अनय भागों में संसदीय लोकतंरि की असफलता के कारणों की मीमांसा करते हुए
कहते हैं कि " अनुबंध करने की सविंरििा अनेक कारणों में से एक है । इस धारणा ने आगे चलकर एक पतवरििा प्ापि कर ली , जिसे सविंरििा के रूप में समर्थन प्ापि हुआ । न तो अनुबंध करनेवाले दोनों पक्ों की आर्थिक कसथति और सौदा करने के सामरयमा को संसदीय लोकतंरि ने विचार में लिया और न ही अनुबंध सविंरििा से इन दो पक्ों पर होने वाले परिणामों पर ही धयान देने का कषट किया । अनुबंध की सविंरििा से दुर्बल पक् को ठगने का सबल पक् को अवसर मिलता है , इसका भी खयाल उसने नहीं रखा । परिणामसवरूप , संसदीय लोकतंरि ने सविंरििा को पुषट तो किया , लेकिन इसके साथ-साथ गरीब , दलित तथा वंचित लोगों की आर्थिक कठिनाइयों में वृतद की । अनेक देशों में सविंरििा की आशा जाग्ि हुई । परंतु समता का महतव
समझने में वह असफल रहे तथा समता और सविंरििा का तालमेल नहीं बिठा पाए । इसीलिए सविंरििा समता पर हावी हो गई और लोकतंरि एक ' फार्स ' बनकर रह गया ।'' सविंरििा के समान ही ' बंधुतव ' की कसथति । डा . आंबेडकर के मतानुसार ' बंधुतव ' यह लोकतंरि का दूसरा नाम है । अतएव सामाजिक अतयाचार , जातीयता , बेगारी , दुवयमावहार और असुरतक्ििा , ये सब लोकतंरि की सथापना को बाधा पहुंचाते हैं ।
' नयायशीलता का अभाव ' लोकतंरि के मार्ग में एक और बाधा है , यह भी डा . आंबेडकर ने पहचाना था । उनके मतानुसार समाज यदि यथार्थ और आदर्श के बीच संतुलन बनाए रख सके तो नयायशीलता प्ापि की जा सकती है । यदि समाज यथार्थ को आदर्श मानने लगे ( जैसे- अलग- अलग विशों का अकसितव ) तो नयाय के सिदांि
12 vizSy 2024