घर में जलाई । अपनी पत्नी जीवन-साथी सावित्रीबाई फुले को वशवक्त किया । उनहें ज््र-विज््र से लैस किया । उनके भीतर यह भाव और विचार भरा कि ्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं । दुनिया का हर इंसान ्ितंत्रता और समता का अधिकारी है । सावित्रीबाई फुले , सगुणाबाई , ि्वतमा शेख़ और अनय सहयोगियों के साथ मिलकर जयोवतबा ने हजारों िषयों से रि्ह्मणों द््रा शिक्् से वंचित किए गए समुदायों को वशवक्त करने और उनहें अपने मानवीय अधिकारों के प्रति सजग करने का बीड़ा उ्ठ्या ।
अपने इन विचारों को वयिहार में उतारते हुए फुले दंपति ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला । यह स्कूल महार्षट्र में ही नहीं , पूरे भारत में किसी भारतीय द््रा लड़वकयों के लिए विशेष तौर पर खोला गया पहला स्कूल था । यह स्कूल खोलकर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने खुलेआम धर्मग्ंरों को चुनौती दी ।
फुले द््रा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को वशवक्त करने का उद्े्य अनय्य और उतपीड़न पर आधारित सामाजिक वयि्र् को उलट देना था . जब 1873 में अपनी किताब ‘ ग़ुलामगिरी ’ की प्र्त्िर् में उनहोंने इस किताब को लिखने का उद्े्य इन श्दों में प्रकट किया- ‘ सैकड़ों िषयों से शूद्रादि अतिशूद्र रि्ह्मणों के राज में दुख भुगतते आए हैं । इन
अनय्यी लोगों से उनकी मुक्त कैसे हो , यह बताना ही इस ग्ंर का उद्े्य है ।’
फुले जितने बड़े समर्थक शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्त के थे , उतने ही बड़े समर्थक ्त्री- मुक्त के भी थे । उनहोंने महिलाओं के बारे में लिखा कि ‘ ्त्री-शिक्् के द््र पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे थे । ताकि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए I ’ ्त्री मुक्त की कोई ऐसी लड़ाई नहीं है , जिसे जयोवतबा फुले ने अपने समय में न लड़ी हो । जयोवतबा फुले ने सावित्रीबाई के साथ मिलकर अपने परिवार को ्त्री-पुरुष समानता का मूर्त रूप बना दिया और समाज तथा र्षट्र में समानता कायम करने के लिए संघर्ष में उतर पड़े ।
फुले ने समाज सेवा और सामाजिक संघर्ष का र््त् एक साथ चुना . सबसे पहले उनहोंने हजारों िषयों से वंचित लोगों के लिए शिक्् का द््र खोला । विधवाओं के लिए आश्म बनवाया , विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया और अछूतों के लिए अपना पानी का हौज खोला । इस सबके बावजूद वह यह बात अचछी तरह समझ गए थे कि रि्ह्मणवाद का समूल नाश किए बिना अनय्य , असमानता और ग़ुलामी का अंत होने वाला नहीं है । इसके लिए उनहोंने 24 सितंबर 1873 को ‘ सतयशोधक समाज ’ की ्र्पना की । सतयशोधक समाज का उद्े्य पौराणिक मानयताओं का विरोध करना , शूद्रों- अतिशूद्रों को जातिवादियों की म्क्री के जाल से मु्त कराना , पुराणों द््रा पोषित जनमजात ग़ुलामी से छुटकारा दिलाना ।
इसके माधयम से फुले ने रि्ह्मणवाद के विरुद्ध एक सां्कृवतक रि्ंवत की शुरुआत की थी . 1890 में जोतीराव फुले के देहांत के बाद सतयशोधक समाज की अगुवाई की जिममेदारी सावित्रीबाई फुले ने उ्ठ्यी । शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के अलावा जिस समुदाय के लिए जोतीराव फुले ने सबसे ज़य्दा संघर्ष किया । वह समुदाय किसानों का था । ‘ किसान का कोड़ा ’ ( 1883 ) ग्ंर में उनहोंने किसानों की दयनीय अि्र् को दुनिया के सामने उजागर किया । उनका कहना था कि किसानों
को धर्म के नाम पर भट्-रि्ह्मणों का वर्ग , शासन-वयि्र् के नाम पर विभिन्न पदों पर बै्ठे अधिकारियों का वर्ग और से्ठ-साहूकारों का वर्ग लूटता-खसोटता है । असहाय-सा किसान सबकुछ बर्ना्त करता है ।
इस ग्ंर को लिखने का उद्े्य बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘ फिलहाल शूद्र-किसान धर्म और राजय समबनधी कई कारणों से अतयनत विपन्न हालात में पहुंच गया है । उसकी इस हालात के कुछ कारणों की विवेचना करने के लिए इस ग्ंर की रचना की गई है ।’ जयोवतराव फुले चिंतक , लेखक और अनय्य के खिलाफ निरंतर संघर्षरत योद्धा थे । वह दलित-बहुजनों , महिलाओं और गरीब लोगों के पुनर्जागरण के अगुवा थे । उनहोंने शोषण-उतपीड़न और अनय्य पर आधारित रि्ह्मणवादी वयि्र् की सच््ई को सामने लाने और उसे चुनौती देने के लिए अनेक ग्ंरों की रचना की । जिसमें प्रमुख रचनाएं निम्न हैं-
तृतीय रत्न ( नाटक , 1855 ), छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा ( 1869 ), रि्ह्मणों की चालाकी ( 1869 ), ग़ुलामगिरी ( 1873 ), किसान का कोड़ा ( 1883 ), सतसार अंक-1 और 2 ( 1885 ), इशारा ( 1885 ), अछूतों की कैफियत ( 1885 ), सार्वजनिक सतयधर्म पु्तक ( 1889 ), सतयशोधक समाज के लिए उपयु्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि ( 1887 ), अंखड़ादि कावय रचनाएं ( रचनाकाल ज््त नहीं ).
भले ही 1890 में जयोवतबा फुले हमें छोड़कर चले गए , लेकिन जयोवतबा फुले ने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के शोषण के खिलाफ जागरण की जो मशाल जलाई , आगे चलकर उनके बाद उस मशाल को सावित्रीबाई फुले ने जलाए रखा । सावित्रीबाई फुले के बाद इस मशाल को शाहूजी महाराज ने अपने हाथों में ले लिया । बाद में उनहोंने यह मशाल डॉ . भीमराव अमबेडकर के हाथों में थमा दिया और डॉ . अमबेडकर ने मशाल को सामाजिक परिवर्तन की जि्ला में बदल दिया । �
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