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डॉ अम्ेडकर ने ज्ोतिबा फु ले को अपना गुरु क्यों माना ?

धुनिक भारत में शूद्रों-अतिशूद्रों , vk

महिलाओं और किसानों के
मुक्त-संघर्ष के पहले नायक जोतीराव फुले हैं , जिनहें जयोवतबा फुले नाम से भी जाना जाता है । बाबा साहब डॉ . भीम राव अमबेडकर ने गौतम बुद्ध और कबीर के साथ जयोवतबा फुले को अपना तीसरा गुरु माना है । अपनी किताब ‘ शूद्र कौन थे ?’ महातम् फुले को समर्पित करते हुए बाबा साहब ने लिखा है कि ‘ जिनहोंने हिनदू समाज की छोटी जातियों को उच् िणयों के प्रति उनकी ग़ुलामी की भावना के संबंध में जागृत किया और जिनहोंने सामाजिक लोकतंत्र की ्र्पना को विदेशी शासन से मुक्त पाने से भी अधिक महत्िपूर्ण बताया , उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महातम् फुले की ्मृवत में सादर समर्पित ।’
फुले ने ‘ जाति भेद विवेकानुसार ’ ( 1865 ) में लिखा कि ‘ धर्मग्ंरों में वर्णित विकृत जाति- भेद ने हिंदुओं के दिमाग को सदियों से ग़ुलाम बना रखा है . उनहें इस पाश से मु्त करने के अलावा कोई दूसरा महत्िपूर्ण काम नहीं हो सकता है । बाबा साहेब अपनी चर्चित कृति जाति वयि्र् का विनाश यानी ‘ एनिहिलेशन ऑफ क््ट ’ में ्ठीक इसी सिद्धांत को आगे बढ़्ते हुए जाति वयि्र् के स्ोत- धर्मग्ंरों को नषट करने का आह््र करते हैं ।
जोतीराव फुले का जनम 11 अप्रैल 1827 को शूद्र वर्ण की माली जाति में महार्षट्र में हुआ था । उनके नाम में फुले श्द माली जाति के होने की वजह से आया है । उनके पिता का नाम गोविनदराव और माता का नाम चिमणाबाई था । फुले जब एक वर्ष के थे , तभी उनकी मां चिमणाबाई का निधन हो गया । उनका पालन- पोषण उनके पिता की मुंहबोली बुआ सगुणाबाई ने किया । सगुणाबाई ने उनहें आधुनिक चेतना से लैस किया ।
सन 1818 में भीमा कोरेगांव युद्ध के बाद पेशवा का शासन भले ही अंग्ेजों ने खतम कर दिया , पर सामाजिक जीवन पर उनकी जातिवादी विचारधारा का नियंत्रण कायम था । पुणे में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्् के दरवाजे बंद थे । सबसे पहले ईसाई मिशनरियों ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्् के दरवाजे खोले ।
सात वर्ष की उम्र में जोतीराव को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा गया , लेकिन जलदी ही सामाजिक दबाव में जोतीराव के पिता गोविंदराव ने उनहें स्कूल से बाहर निकाल लिया । वे अपने पिता के साथ खेतों में काम करने लगे । उनकी जिज््सा और प्रतिभा से उर्दू-फारसी के जानकार गफफ्र बेग और ईसाई धर्मप्रचारक लिजीट साहब बहुत प्रभावित थे । उनहोंने गोविंदराव को सलाह दी कि वे जोतीराव को पढ़ने के
लिए भेजें और फिर से जोतीराव स्कूल जाने लगे ।
इसी बीच 13 वर्ष की उम्र में ही 1840 में जोतीराव का विवाह 9 िषटीय सावित्रीबाई फुले से कर दिया गया । 1847 में जोतीराव ्कॉवटश मिशन के अंग्ेजी स्कूल में पढ़ने लगे । यहीं पर होनहार विद्य्रटी जोतीराव का परिचय आधुनिक ज््र-विज््र से हुआ । ्क्वटश मिशन स्कूल में दाखिले के बाद जोतीराव फुले के रग-रग में समता और ्ितंत्रता का विचार बसने लगा । उनके सामने एक नई दुनिया खुल गई । तर्क उनका सबसे बड़ा हथियार बन गया । हर चीज को वे तर्क और नय्य की कसौटी पर कसने लगे । अपने आस-पास के समाज को एक नए रज़रिए से देखने लगे । इसी दौरान उनहें वयस्तगत जीवन में जातिगत अपमान का सामना करना पड़ा । इस घटना ने भी वर्ण-जाति वयि्र् और रि्ह्मणवाद के संदर्भ में उनकी आंखे खोलने में मदद की ।
1847 में मिशन स्कूल की पढ़ाई उनहोंने पूरी कर ली । जयोवतबा फुले को इस बात का अहसास अचछी तरह से हो गया था कि शिक्् ही वह हथियार है , जिससे शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्त हो सकती है . उनहोंने अपनी एक कविता में लिखा- विद्या बिना मति गई / मति बिना नीति गई / नीति बिना गति गई । सबसे पहले शिक्् की जयोवत उनहोंने अपने
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