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श्ेवणयां थीं । वैदिक ग्ंरों के अनुसार जनम से प्रतयेक वयस्त शूद्र ही पैदा होता है , लेकिन वह बड़् होकर कर्म या अपने भावानुसार क्वत्रय , वै्य या रि्ह्मणति धारण करता है । वैदिक काल में वर्ण वयि्र् प्रधान थी जिसके अनुसार जैसा जिसका गुण वैसे उसके कर्म , जैसे जिसके कर्म वैसा उसका वर्ण निर्धारण का सिद्धांत था । यहां पर ्ि्भाविक प्रश्न उ्ठता है कि जाति और वर्ण में ्य् अंतर है ? तो जाति का तातपयना है उद्भव के आधार पर किया गया िगटीकरण है । नय्य सूत्र में लिखा है : समानप्रसि्सतमका जाति ( नय्य दर्शन-2 / 2 / 71 ) अर्थात जिनके प्रसव अर्थात जनम का मूल सामान हो अथवा जिनकी उतपवत् का प्रकार एक जैसा हो , वह एक जाति कहलाते है । वैदिक वयि्र् में वर्ण का अर्थ होता है जिसका वरण किया जाए अर्थात जिसे चुना जाए । वैदिक काल में रि्ह्मण , क्वत्रय , वै्य और शूद्र के लिए " वर्ण " श्द का प्रयोग किया गया । वर्ण का मतलब है वर्ण को चुनने का आधार गुण , कर्म और ्िभाव होता है ।
ऋगिेद में बलि देने वाला रि्ह्मण , लकड़ी काटने वाला रि्ह्मण , खेती करने वाला रि्ह्मण , पशुपालन करने वाला रि्ह्मण , मंत्रोचारण करने वाला रि्ह्मण , यज् करने वाला रि्ह्मण , होता रि्ह्मण इतय्वद के अलावा किसी जाति या वर्ण का नाम नहीं है । ऋगिेद के ही पुरुष सूत्र में रि्ह्मण , क्वत्रय , वै्य एवं शूद्र का उललेख है , किनतु यह कदापि ्पषट नहीं है कि वह वर्ण , जाति या वर्ग हैI वर्ण जनम आधारित नहीं होता था । वर्ण परिवर्तन की पूर्ण ्ितंत्रता थी । वर्ण चिंतन पूर्ण रूप से वैदिक चिंतन है एवं इसका मुखय प्रयोजन समाज में मनुषय को पर्पर सहयोगी बनाकर भिन्न-भिन्न कामों को पर्पर बांटना , किसी भी कार्य को उसके अनुरूप दक् वयस्त से करवाना , सभी मनुषयों को उनकी योगयता अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है ।
्ि्मी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया कि वेद सभी मनुषयों और सभी िणयों के लोगों के लिए ्ियं वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते है । ्ि्मी जी के काल में
दलितों को वेद अधयरर का निषेध था । उसके विपरीत वेदों में ्पषट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अधययन का अधिकार ्ियं वेद ही देते है । वेदों में ‘ शूद्र ’ श्द लगभग बीस बार आया है । कही भी उसका अपमानजनक अरयों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी ्र्र पर शूद्र के जनम से अछूत होने , उनहें वेदाधययन से वंचित रखने , अनय िणयों से उनका दर्जा कम होने या उनहें यज््वद से अलग रखने का उललेख नहीं है । वेदों में शुद्र को अतयंत पररश्मी कहा गया है । वैदिक ग्ंरों और साहितय का अधययन किया जाए तो कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है कि वर्तमान शूद्र वर्ण के लोग किसी समय दलित माने जाते थे । भारत के उन्नत हिनदू समाज में समय परिवर्तन के साथ आयी जटिलताओं और फिर विदेशी मुस्लम आरि्ंताओं और अंग्ेजों ने अपने हितों के लिए भारत की विशाल हिनदू जनसंखय् को अपने ढंग से प्रयोग हेतु उच् जाति एवं निम्न जाति बोध के साथ जातिवाद की नींव डाली । हिनदू समाज को तोड़ने के लिए तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपने-अपने ढंग से दलित समाज की वय्खय् की और उनकी तुलना शूद्रों से करके हिनदू समाज का अहित करने का काम किया । भारत रत्न डा . भीमराव अमबेडकर ने अपनी पु्तक ‘ शूद्रों की खोज ’ में वैदिक उदाहरणों को देकर यह सिद्ध किया है कि आर्य , दास , द्यु सब एक ही समुदाय के थे और उनमें मतानतर अटवा मतभिन्नता धार्मिक मानयताओं अथवा पूजा-पद्धतियों को ही लेकर था , न कि किसी जाति को लेकर ्योंकि वैदिककाल में तो जातियां थी ही नहीं । इस तरय को डॉ भीम राव आंबेडकर ने भली भांति समझ था और उनहोंने अपनी पु्तक शूद्रों की खोज ..? में ्पषट रूप से लिखा था कि वैदिक कालीन शूद्र , दलित नहीं थे । अनुसूचित जाति ( दलित ) की उतपवत् उस काल हिनदू , हिंदुति और हिनदु्र्र अपनी पराकाष्ठा पर था , साथ ही अधय्तम ज््र और भौतिक विज््र भी अपने उतकषना पर थाI यह वह समय था जब वयस्त अपने को प्रकृति के अनुरूप रखता था और प्रकृति को भी अपने
अनुरूप बनाये रखने के लिए प्रयत्न करता थाI ततक्लीन समाज में जातियों का कोई अस्तति नहीं था । उत्र वैदिक काल में समाज के जटिल होने के साथ साथ वर्ण के गुण धर्म को ्िीकृति प्रापत हुई और धीरे धीरे िणयों का विकास हुआ जो कालांतर में वर्ण वयि्र् के रूप में प्रभावी हुआ । उस समय कार्य विशेष के लिए कौशल प्रापत करना सामानय जन के लिए अपने परिवार और कुटुंब में ही संभव था , जिसके परिणाम्िरूप वंशानुगत जातियां भी अस्तति में आयी । जातियों की संखय् कर्मानुसार सीमित थी और एक ही वर्ण में कई जातियां समाहित थी । मनुकाल में भी भारतीय हिनदू समाज में अ्पृ्यता नहीं थी
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