April 2023_DA | Page 39

मुस्लम देशों और समाजों में चल रही कुरीतियों पर न केवल चुप रहता है , बसलक उनहें इ्ल्मी ‘ सं्कृवत ’ का अंग मानकर उनका समम्र करता है । इस विरूपता पर प्रश्न न उ्ठ्कर और हिंदू धर्म-समाज के प्रति वमरय्रोपों का तरयपूर्ण प्रतिकार न कर जब हिंदू प्रचारक पश्चम पर ‘ ्िेत अहंकार ’ या श्ेष्ठताबोध का आरोप लगाते हैं तो वह निषफल बै्ठता है और हिंदू धर्म-समाज के प्रति पश्चमी दुर्ग्ह यथावत बना रहता है ।
औपनिवेशिक युग बीतने के बाद आज भी वही पुराने आरोप लगाने से यही लगता है कि हिंदुओं के पास बचाव में कहने को कुछ ्ठोस नहीं है । इसीलिए भारत में जाति-भेद पर पश्चमी चिंताओं को र्लि्द कहना आतम-प्रवंचना बनकर रह जाता है । ऐसे में हिंदू प्रचारकों को लफफ्जी के बजाय पश्चमी विमर्श के तरयगत प्रतिकार का दायिति लेना होगा । पश्चमी बुद्धिजीवी हिंदुओं को जातिवादी यानी एक प्रकार का र्लि्दी मानते हैं कि उनमें जनम-जाति के आधार पर ऊंच-नीच की भावना होती है । लिहाजा वे निंदा के पात्र हैं । जातिगत भेदभाव उनहें गुलामी या रंगभेद से भी अधिक क्रूर और अमानवीय लगता है ।
हिंदुओं की जाति प्रथा के बारे में उनके भीतर यही धारणा है कि उच् जाति के हिंदू निम्न जातियों के प्रति बेपरवाह हैं । यहां तक कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव कानूनी रूप से खतम होने के बावजूद यह धारणा कायम है । पश्चम को यही गलतफहमी है कि मदर टेरेसा ने ही हजारों अभागे , उपेवक्त , वंचित और अनाथ भारतीय बच्ों का उद्धार किया , जो उच् जाति के हिंदुओं ने नहीं किया । ऐसी गढ़ी गई छवि का प्रतिकार केवल और केवल कोरे आरोप लगाने से नहीं हो सकता ।
हिंदू प्रचारक दूसरी बुनियादी गलती चर्च- मिशनरी गतिविधियों और उनके हिंदू-विरोधी प्रचार का ्ठीकरा ‘ विदेशियों ’ पर फोड़कर करते हैं । यह भी पुरातन मानसिकता है । आज भारत में लगभग सारी चर्च गतिविधियां देसी ईसाई चला रहे हैं ( बसलक भारत , कोरिया और फिलीपींस के ईसाई अब अंतरर्षट्रीय चर्च
सं्र्ओं के नेतृति में बढ़ रहे हैं )। देसी मीडिया और वि्िविद्यालयों में पूरा हिंदू विरोधी प्रचार भारतीय पत्रकार और अकादमिक चलाते आए हैं । रि्ह्मणों और हिंदू श््त्रों के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप भारतीय नेता ही करते हैं । उसे ‘ गोरे विदेशियों ’ की शरारत कहने से कुछ नहीं होने वाला ।
भारतीय बौद्धिकों और नेताओं में हिंदू धर्म और अनय धमयों के बारे में गंभीर भ््वतयां पै्ठ कर चुकी हैं । जो बातें पश्चम कहता है , वे
किसी न किसी रूप में भारतीय बौद्धिकों और नेताओं द््रा भी कही जाती हैं । भारतीय वामपंथियों , से्युलरवादियों , गांधीवादियों , नव-आंबेडकरवादियों और देसी ईसाई शैवक्क सं्र्ओं ने ही हिंदू धर्म-समाज के बारे में तमाम भ््मक बातों का प्रचार किया । ऐसे में हिंदू प्रचारकों द््रा पश्चमी चिंताओं को ‘ र्लि्द ’ कहना वयर्थ है । उनहें देखना चाहिए कि पश्चम में अ्िेत बुद्धिजीवी और सं्र्र भी हिंदू समाज को जातिगत र्लि्दी मानते हैं । अर्थात पश्चम में हिंदू समाज के प्रति सर्वसममत दुर्ग्ह हैं । नि : संदेह , विदेशी चर्च-मिशनरी सं्र्र इस वैचारिक दुषप्रचार को आगे बढ़् रहे हैं , ्योंकि चतुर और सजग होने के साथ ही उनका दृसषटकोण भी ्पषट है ।
उनहोंने दशकों से बौद्धिक-शैवक्क कार्य एवं प्रचार पर बहुत पररश्म करने के साथ ही संसाधन भी लगाए हैं । इसका ही परिणाम है आज ्ियं भारतीय , जिनमें बड़ी संखय् में हिंदू
लिबरल-वामपंथी-र्षट्रवादी भी वही सब दोहराते हैं , जो मिशनरी चाहते हैं । अतः इसका दोष बाहरी लोगों पर मढ़र् वयर्थ है , जब विगत सात दशकों से भारत की राजनीतिक-शैवक्क वयि्र् पूरी तरह हिंदू सत््धारियों के हाथ में है । यदि अपने ही धर्म , समाज , सं्कृवत और इतिहास के बारे में हिंदू शासकों-बौद्धिकों ने अपने ही देश में तमाम भ््ंवतयों को फैलने दिया तो विदेशियों पर दोषारोपण हमारी दोहरी मूढ़ता दर्शाता है । यह समझना होगा कि राजनीतिक
या दलीय िचना्ि से बौद्धिक-सां्कृवतक प्रभुति नहीं बनता ।
सर्वप्रथम , भारत में जातिप्रथा की जटिल सच््ई और इतिहास का गहन शोध और तदनुरूप उसकी वय्पक शिक्् दी जानी चाहिए थी , जो नहीं दी गई । दूसरे , समाज को जातिगत पूर्नाग्हों से मु्त करना भी जरूरी था , जबकि नेताओं ने उसे स्ती राजनीति का जरिया बना लिया । तीसरे , ईसाई मिशनरी प्रचार के प्रतिकार के लिए सभी धमयों-पंथों की मूल किताबों और विचारों को ्ठोस गंभीर विषय के रूप में ्र्वपत करना जरूरी था , जिससे ईसाइयत के दावों का खोखलापन ्पषट दिखाया जा सके । उलटे यहां से्युलरिजम तथा सर्वधर्म समभाव की विकृत समझ में सभी दलों ने हिंदू-विरोधी मतवादों को ही मजबूत किया । अतः जब तक इन तीनों कर्तवयों को पूरा न करें , तब तक ्िदेश या विदेश में हिंदू-विरोधी दुर्ग्हों को खतम करना असंभव है । �
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