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महिला सशधतिकरण की हो रही ठोस पहल कर्तव्यों पर अधिकारों की कु र्बानी कब तक ..? नियमों को व्यवहार में लाना जरूरी

भारत को लैंगिक भेदभाव रहित देश बनाने के लिए सरकार और समाज के साथ ही परिवार और व्यचति को भी अपनी भूमिका ईमानदारी से निभानी होगी और इस दिशा में जो प्रयास हो रहे हैं उसकी गति बेशक धीमी है लेकिन दिशा एकदम सही है ।

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माजिक परर्वेश में लंबे समय से महिला सशक्तिकरण का त्वरय छाया हतुआ है और इस त्वरय कको कानूनी संरक्ण भी भली भांति प्ा्त हतुआ है । समय समय पर महिलाओं कको सशक्त बनाने और उनहें अधिकार समपन् करने के लिए बहतुत से कानून बनाए गए । लेकिन यदि इस प्श्न पर गहराई से त्वचार करें कि क्या उनहें , जको जनसंखया का 50 प्तिशत हैं , उनका पूरा हक क्या मिल पा रहा है , तको अररकोर के साथ ज्वाब नकारातमक ही सामने आता है ।
लोक व्यवहार में लागू नहीं हो रहे कानून
भारतीय समाज का ढाँचा इस तरह से निर्मित है कि आज इस कम्यूटर यतुग में भी पारर्वारिक सतर पर महिलाओं के साथ हकोने ्वाला भेदभा्व बदसतूर जारी है । ्वह भी तब जबकि नियमों की बात कही जाए तको कानूनन पिता की समपति पर उसकी बेटी का अधिकार शादी के उपरांत भी है । लेकिन हकोता यह है कि माता पिता शादी त्व्वाह पर जको भी खर्च करते हैं , ्वही उनकी ओर से िड़की के प्ति अंतिम बडा खर्च हकोता है । उसके बाद ्वह घर उसका नहीं रह जाता जहां ्वह पैदा हतुई और पली — बढ़ी । त्व्वाह के बाद पिता के घर से उसका के्वि भा्वनातमक रिशता ही रह जाता है । उसकको घर के निजी त्वरयों में शामिल नहीं किया जाता । समपति के बट्वारे से पहले ही उस पर मानसिक दबाब बनाकर एनओसी पर साईन कर्वा लिए जाते हैं और यदि ्वह ऐसा करने के लिए मना करती है तब उसे घर से रिशता खतम करने के लिए कहा जाता है । ऐसे में बेटी का कर्तवय निभाते हतुए
uoacj 2021 दलित आं दोलन पत्रिका 41