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लड़ते हतुए िरॉ . आंबेडकर ने दलित चेतना के निर्माण के लिए अंतताः हिनदू धर्म का भी परितयाग कर दिया था , पर आज जिस तरह जय श्ीराम ( जको दरअसल भाजपा का चतुना्वी यतुदघकोर बन गया है ) तथा जय परशतुराम के नारों और मंत्रकोच्ार के बीच माया्वती ने त्रिशूल धारण कर उस दलित चेतना कको सर के बल खड़ा कर दिया है , उसने दलित समतुदाय कको ्वैचारिक रूप से निरसत्र कर दिया है और उनहें सामप्दायिकता की त्वचारधारा के हमले के सामने निष्कवच बना दिया है ।
पहचान खोता दलित एजेंडा
आजादी के 75्वें ्वर्ष में भी जमीनी पसथति उतराहजनक नहीं बपलक निराश करने्वाली ही है क्योंकि आज भी महज 6 % दलित नौकरीपेशा हैं , ( जिनमें मात्र 2.93 % सरकारी नौकरी में हैं ), 94 % श्तमक मजदूर या अनय पेशों में है । 42 % दलित भूमिहीन हैं , जिनके पास मेहनत- मजूरी के अला्वा आजीत्वका का ककोई साधन नहीं है । जिनके पास जमीन है भी , ्वे सीमांत या गरीब किसान हैं । ठीक इसी तरह मात्र 8 % आतद्वासी नौकरीपेशा हैं , ( जिनमें मात्र 3.54 % सरकारी नौकरी में हैं ), 92 % मेहनत मजूरी या अनय पेशों से अपनी जीत्वका चलाते हैं । जाहिर है दलितों के अगतुआ हिसरे के अंदर गहरी चिंता है कि आमबेिकर्वादी धारा के संघरषों के फलस्वरूप दलितों का शासकवर्गीय पार्टियों से जको अलगा्व हतुआ था , और ्वे स्वतनत्र राजनीतिक दा्वेदारी की ओर बढ़े थे , बसपा कहीं उस पूरी प्तकया कको 180 डिग्ी उलटी दिशा में तको नहीं ले जा रही है , बसपा कहीं मनतु्वादी संस्कृति और भाजपा / कांग्ेर की राजनीति में घतुिने — मिलने तको नहीं जा रही है !
दलित समाज की सोचनीय स्थिति
िरॉ . आंबेडकर ने जिस पूंजी्वाद और ब्ाह्मण्वाद के खिलाफ लड़ाई की बात की थी , आज संकटग्सत न्वउदार्वाद के रूप में पूंजी्वाद
का सबसे भया्वह रूप हमारे सामने है , तको सांप्दायिकता के उभार के रूप में ब्ाह्मण्वाद
और फासी्वाद के सबसे नग् स्वरूप से हम रूबरू हैं । जाहिर है न्वउदार्वाद और फासी्वाद
30 दलित आं दोलन पत्रिका uoacj 2021