साहित्य समाज का दर्पण है
-नितिन सामता
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कागज़ों को मोड़कर कहते थे दिल की बात,
बोतलों में बहकर आती थी, व्यापारियों की सौगात ।
वीर रणबांकुरों का था वो ज़माना,
चाणक्य-नीति से था मद्रा कमाना ।।
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विदेशी लटेरों का था दबदबा बड़ा,
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नालन्दा सोमनाथ को आधा करके छोड़ा ।
ऊच-नीच, जाति-धर्म पर हुए कई क्लेश,
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जिस परिवार में जन्मे वैसा हुआ उनका वेष ॥
इन वास्तविकताओ ं को संजोया कई महान् लेखों में,
निन्दा तो हुई पर मदद किया कई शौकीन शेखों ने ।
आज हम उस सस्कृति को बड़ी बारीकी से जानते हैं,
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तेनाली बीरबल के विद्वत्व का लोहा मानते हैं ॥
पर ये विस्तृत सामाजिकताएं हमें सपने में नहीं दिखीं,
और न ही हम में से किसी ने कल्पना करके लिखी ।
ये तो देन है उन मौलिक परिकल्पनाओ ं की, जो सजो दिये गये साहित्यों में,
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गीत बने नाटक हुए और कई तो उतार दिये गये चलचित्रों में ॥
आजकल की तो बात ही निराली है,
मोबाइल, कम्प्यूटर ने दनिया सभाली है ।
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एक फोन कॉल में प्यार, दसरे में इक़रार हो जाता है,
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फिर एक एस.एम.एस. से इकार और दसरे से दीदार हो जाता है ॥
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इन व्यक्तिगत-सामाजिक अस्थिरताओ ं का विवरण भी मिलता है क़िताबों में,
ख़ब कमाए चेतन भगत जैसे इन कहानियों के व्यापारियों ने ।
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लेखन-शैली में परिवर्तन भी साफ़ नज़र आती है,
शेक्सपीयर का नाम सनते ही पहले डिक्शनरी याद आती है ॥
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ग्रामीण समाज कभी देखा नहीं, पर लिख सकते हैं उस पर निबन्ध,
गरुदेव और प्रेमचन्द की