The Shoreline'14 April, 2014 | Page 83

साहित्य समाज का दर्पण है -नितिन सामता ं कागज़ों को मोड़कर कहते थे दिल की बात, बोतलों में बहकर आती थी, व्यापारियों की सौगात । वीर रणबांकुरों का था वो ज़माना, चाणक्य-नीति से था मद्रा कमाना ।। ु विदेशी लटेरों का था दबदबा बड़ा, ु नालन्दा सोमनाथ को आधा करके छोड़ा । ऊच-नीच, जाति-धर्म पर हुए कई क्लेश, ं जिस परिवार में जन्मे वैसा हुआ उनका वेष ॥ इन वास्तविकताओ ं को संजोया कई महान् लेखों में, निन्दा तो हुई पर मदद किया कई शौकीन शेखों ने । आज हम उस सस्कृति को बड़ी बारीकी से जानते हैं, ं तेनाली बीरबल के विद्वत्व का लोहा मानते हैं ॥ पर ये विस्तृत सामाजिकताएं हमें सपने में नहीं दिखीं, और न ही हम में से किसी ने कल्पना करके लिखी । ये तो देन है उन मौलिक परिकल्पनाओ ं की, जो सजो दिये गये साहित्यों में, ं गीत बने नाटक हुए और कई तो उतार दिये गये चलचित्रों में ॥ आजकल की तो बात ही निराली है, मोबाइल, कम्प्यूटर ने दनिया सभाली है । ं ु एक फोन कॉल में प्यार, दसरे में इक़रार हो जाता है, ू फिर एक एस.एम.एस. से इकार और दसरे से दीदार हो जाता है ॥ ं ू इन व्यक्तिगत-सामाजिक अस्थिरताओ ं का विवरण भी मिलता है क़िताबों में, ख़ब कमाए चेतन भगत जैसे इन कहानियों के व्यापारियों ने । ू लेखन-शैली में परिवर्तन भी साफ़ नज़र आती है, शेक्सपीयर का नाम सनते ही पहले डिक्शनरी याद आती है ॥ ु ग्रामीण समाज कभी देखा नहीं, पर लिख सकते हैं उस पर निबन्ध, गरुदेव और प्रेमचन्द की