Sept 2024_DA | Page 27

उतपलत् पर आलोचिनातमक प्काश डालती है और इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित करती है कि कैसे ‘ जाति की समस्या ’ सामाजिक संगठन और संिचिना निर्धारण करने में एक प्भुतवशाली कारक बन गई । महार समाज में जन्म और बचिपन से ही जातिवाद का कडवा अनुभव होने के कारण डा . आंबेडकर ने ऐतिहासिक साक््यों के आलोक में ‘ जाति-समस्या ’ की जांचि की और प्माणित लक्या कि कैसे जाति सामाजिक कार्रवाई का मूलभूत मापदंड बन गई । अपने गहन अध्य्यन के आधार पर उन्होंने बता्या कि कि मूल रूप से शूद्र इंडो-आ ्यन समाज में क्लरि्य थे , जो रिाह्मणवादी कानूनों की गंभीरता के कारण वह सम्य के साथ इतने अपमानित हो गए कि उन्हें सार्वजनिक जीवन में वासतव में बहुत निम्न दजदे पर पहुंचि गए । अपने सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए , डा . आंबेडकर ने विभिन्न रिाह्मणवादी
विद्ानों और लेखकों का अध्य्यन लक्या , लेकिन उन्हें हिंदू समाज के चिलौ्े वर्ण के रूप में शूद्रों की उतपलत् के लिए हिंदू धर्मग्ं्ों और साहित्य में कोई उललेख नहीं मिला । फलसवरूप , उन्हें पन््चिमी-्यूरोपी्य दार्शनिकों द्ािा स्ालपत आ ्य- आकमण सिद्धांत का उललेख करना पडा । पन््चिमी लेखकों द्ािा उपजे आ ्य आकमण सिद्धांत के अनुसार , आ ्य वह हैं जिन्होंने वेदों की िचिना की और बाहर से आकर भारत पर आकमण लक्या और स्ानी्य लोगों पर अपना वचि्यसव स्ालपत लक्या , जिन्हें ्यूरोपी्य लोग मूल निवासी , दास-दस्यु मानते थे । ्वेत रंग की सववोच्चता में लव्वास करते हुए उन्होंने दावा लक्या कि आ ्य
डा . बी . आर . आंबेडकर ने ' आर्यन आक्रमण सिदांत ' का पूरी तरह से खंडन किया और अपने विशलेषण से इस तथय को स्ालपत किया कि भारत में रहने वाले सभी लोग आर्य हैं और वह ( आर्यन ) बाहर से आई कोई जाति नहीं हैं ।
्वेत नसल के थे , जबकि दास-दस्यु काले रंग के थे । आर्यों ने ्वेत रंग को प्ा्लमकता दी और चितुर्वर्ण व्यवस्ा बनाई , जिसमें शूद्रों ्यानी ' दास- दस्यु ' को अलग कर व्यवस्ा में सबसे लनचिले पा्यदान पर रखा ग्या । आ ्यन आकमण सिद्धांत , पन््चिमी लेखकों द्ािा भारत पर पन््चिम की वरी्यता / सववोचिता स्ालपत करने के उद्े््य से लक्या कि भारत के लोग अज्ानी- अंिलव्वासी रहे है और पन््चिम के लोग ज्ानी है जिन्होंने वेदों की िचिना की । डा . बी . आर . आंबेडकर ने ' आ ्यन आकमण सिद्धांत ' का पूरी तरह से खंडन लक्या और अपने लव्लेषण से इस तथ्य को स्ालपत लक्या कि भारत में रहने वाले सभी लोग आ ्य हैं और वह ( आ ्यन ) बाहर से आई कोई जाति नहीं हैं । इस संबंध में , उन्होंने सबसे पहले वेदों , मुख्य रूप से ऋगवेद का उललेख लक्या , जिससे पता चिलता है कि ऋगवेद में कई स्ानों पर आ ्य शबद
का प्रयोग लक्या ग्या है , जिसके अलग-अलग अर्थ हैं जैसे , सममाननी्य व्यक्ति , भारत का नाम , नागरिक ्या शरिु आदि । लेकिन कहीं भी इसका प्रयोग जाति ्या नसल के तलौि पर नहीं लक्या ग्या है । ऋगवेद का गहराई से अध्य्यन करने के बाद डा . आंबेडकर ने देखा कि आ ्य आधिपत्य सिद्धांत और गैर-आ ्यन प्जालत्यों- दास-दस्यु पर आधिपत्य स्ालपत करने का कोई सबूत नहीं है , न ही दास-दस्यु कोई अलग जाति-प्जाति है । दूसरा , उनका दावा है कि ्यलद त्वचा का रंग इंडो-आ ्यन समाज में ' चितुर्वर्ण-व्यवस्ा ' ्या नसल वगटीकरण का आधार था , तो हिंदू समाज के चिार वगथों ( वणथों ) के लिए चिार अलग-अलग रंग का उललेख होना चिाहिए था , जहां आ ्य- आकमण सिद्धांत अपनी वैधता और प्ामाणिकता स्ालपत करने में विफल हो जाता है । इसके अलावा ऐसा कोई साक््य नहीं है जो ्यह साबित कर सके कि आ ्य , दास-दस्यु इंडो-आ ्यन समाज में अलग-अलग नसलें थीं । किंतु ्यहां प्श्न उठता है कि शूद्र कलौन थे ? इसका उत्ि देते हुए डा . आंबेडकर कहते है कि शूद्र आ ्य थे , जो हिंदू समाज के क्लरि्य वर्ग से संबंधित थे । शूद्र क्लरि्यों का एक इतना महतवपूर्ण हिससा था कि प्राचीन आ ्य समुदा्यों के कुछ सबसे प्रतिष्ठित और शक्तिशाली राजा शूद्र थे । किंतु कालांतर में , रिाह्मणों द्ािा क्लरि्यों के शूद्र कुल के ' उपन्यन संसकाि ' से इंकार ने उन्हें इंडो-आ ्यन समाज में दूसरे से चिलौ्े पा्यदान पर धकेल लद्या । शूद्र कुल के क्लरि्यों के ' उपन्यन संसकाि ' से इंकार का उदभव रिाह्मणों की प्लतशोध की भावना से हुआ था , जो कुछ शूद्र राजाओं के अत्याचिारों , उतपीडन और अपमान से कराह रहे थे । रिाह्मणों द्ािा क्लरि्यों को उपन्यन देने से इंकार का कानूनी ्या धार्मिक आधार नहीं था , बल्कि पूरी तरह से दोनों वणथों के बीचि राजनीतिक प्लतद्ंलद्ता के कारण था । डा . आंबेडकर द्ािा लक्या ग्या ्यह लव्लेषण सपष्ट रूप से प्दर्शित करता है कि यद्यपि हिंदू समाज सलद्यों से जाति ्या वर्ण के आधार पर विभाजित है , लेकिन तथ्य ्यह है कि भारत में रहने वाले सभी लोग मूलनिवासी और आ्य्य हैं । �
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