जीनदे के लिए एक सुसपष्ट मार्ग दिया । उनहें अपनदे त्वरूद्ध होनदे ्वालदे अतयाचारों, शोषण, अनयाय तथा अपमान सदे संघर्ष करनदे की शशकत दी । उनके अनुसार सामाजिक प्रताड़ना राजय द्ारा दिए जानदे ्वालदे दण् सदे भी कहीं अधिक दुःखदाई है । उनहोंनदे प्राचीन भारतीय ग्रनथों का त्वशद अधययन कर यह बतानदे की चदेष्टा भी की कि भारतीय समाज में ्वणमा-व्यवसथा, जाति प्रथा तथा असपृ्यता का प्रचलन समाज में कालानतर में आई त्व्कृतियों के कारण उतपन्न हुई है, न कि यह यहां के समाज में प्रारमभ सदे ही त्वद्यमान थी ।
उनहोंनदे दलित ्वगमा पर होनदे ्वालदे अनयाय का ही त्वरोध नहीं किया अपितु उनमें आतम-गौर्व, स्वा्वलमबन, आत्मविश्वास, आतम सुधार तथा आतम त्व्लदेरण करनदे की शशकत प्रदान की दलित उद्धार के लिए उनके द्ारा किए गए प्रयास किसी भी दृष्टिकोण सदे आधुनिक भारत के निर्माण में भुलायदे नहीं जा सकतदे । पं. नदेहरू के शबिों में‘ ्लॉ. अम्बेडकर, हिनिू समाज की दमनकारी प्र्वृततियों के त्वरूद्ध किए गए त्वद्रोह का प्रतीक थदे ।’
भारतीय आयगों के सामाजिक संग्ठन का आधार चतु्वमाणमा व्यवसथा रहा है । इस आधार पर समाज को अपनदे कार्य के आधार पर चार भागों में त्वभाजित कर रखा था । ्लॉ अम्बेडकर नदे इस व्यवसथा को अ्वैज्ातन् अतयाचारपूर्ण, संकीर्ण, गरिमाहीन बतातदे हुए इसकी कटु आलोचना की । उनके अनुसार यह श्रम के त्वभाजन पर आधारित न होकर श्रमिकों के त्वभाजन पर आधारित थाI उनके अनुसार भारतीय समाज की चतु्वमाणमा व्यवसथा यूनानी त्वचारक प्लेटो की सामाजिक व्यवसथा के बहुत निकट है । प्लेटो नदे वयशकत की कुछ त्वतशष्ट योगयताओं के आधार पर समाज का त्वभाजन करतदे हुए उसदे तीन भागों में त्वभाजित किया । ्लॉ अम्बेडकर नदे इन दोनों की व्यवसथाओं की जोरदार आलोचना की तथा सपष्ट किया कि क्मता के आधार पर वयशकतयों का सुसपष्ट त्वभाजन ही अ्वैज्ातन् तथा असंगत है ।
्लॉ अम्बेडकर का मत था कि उन्नत तथा कमजोर वर्गों में जितना उग्र संघर्ष भारत में है ्वैसा त्व््व के किसी अनय िदेश में नहीं है ।
्लॉ अम्बेडकर नदे भारत में जाति-व्यवसथा
की प्रमुख त्वशदेरताओं और लक्णों को सपष्ट करनदे का प्रयास किया जिनमें प्रमुख निम्न हैं- चातु्वमाणमा पदसोपानीय रूप में ्वगजी्कृत है । जातीय आधार पर ्वगजी्कृत इस व्यवसथा को व्यवहार में वयशकतयों द्ारा परर्वततमात करना असम्भव है । इस व्यवसथा में कार्यकुशलता की हानि होती है, कयोंकि जातीय आधार पर वयशकतयों के काययो का पू्वमा में ही निर्धारण हो जाता है । यह निर्धारण भी उनके प्रतशक्ण अथ्वा ्वास्तविक क्मता के आधार पर न होकर जनम तथा माता पिता के सामाजिक सतर के आधार पर होता है । इस व्यवसथा सदे सामाजिक सथैतिकता पैदा होती है, कयोंकि कोई भी वयशकत अपनदे ्वंशानुगत व्यवसथा का अपनी स्वदेचछा सदे परर्वतमान नहीं कर सकता । यह व्यवसथा संकीर्ण प्र्वृतियों को जनम िदेती है, कयोंकि हर वयशकत अपनी जाति के अशसतत्व के लिए अधिक जागरूक होता है, अनय जातियों के सदसयों सदे अपनदे समबनध दृढ़ करनदे की कोई भा्वना नहीं होती है । नतीजन उनमें राष्ट्रीय जागरूकता की भी कमी उतपन्न होती है । जाति के पास इतनदे अधिकार हैं कि ्वह अपनदे किसी भी सदसय सदे उसके नियमों की उ्लंघना पर
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