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पहलिी बच्ी जिंदा नहीं रही
19 साल की उम् में शादी हुई और लगभग 20 साल की उम् में एक बच्ची हुई, लदेत्न मदेरा ससुराल उनहीं रूतढ़यों सदे बंधा था जिसदे पूरा समाज मानता है । डिली्वरी घर में कराई गई, जिसका खामियाजा मैंनदे अपनी बदेटी की जान गं्वाकर भुगता । मदेरी मासूम बच्ची सिर्फ चार दिन ही जिंदा रही और जब मदेरी हालत खराब हो गई तब मुझदे असपताल नसीब हुआ । पहली प्रेग्नेंसी में ही बच्चदे को खो िदेनदे का सदमा ऐसा लगा कि कई दिन तक उबर नहीं पाई । जब मैं 21 साल की हुई तो दूसरी बदेटी हुई । तब लगा कि मदेरी पहली बदेटी ्वापस आ गई है । बदेटी की पर्वरिश और गृहसथी संभालतदे-संभालतदे अपनदे सपनों को कुछ समय के लिए पीछडे धकेलती गई, लदेत्न पढ़ाई की ललक के चलतदे पति के साथ दि्ली त्व््वत्वद्यालय में बीए में दाखिला लिया ।
जब तप्ंतसपलि ने दी तलिफट
उसी दौरान पति की नौकरी करनाल में लग गई । मैंनदे बीएड का एंट्रेंस दिया और पास हो गई । करनाल के त्वमदेन ्लॉलदेज में ही मुझदे एडमिशन मिल गया । मैं रोज ्लॉलदेज सदे दो किलो. की दूरी पर एक रिेच में बदेटी को छोडनदे जाती और फिर ्वहां सदे भागी-भागी ्लॉलदेज पहुंचती । इस समय मैं चार महीनदे की प्रेग्नेंट
भी थी । ऐसी हालत में रोज रिेच सदे ्लॉलदेज तक का सफर करतदे मदेरी प्रिंसिपल िदेखतीं तो उनहोंनदे लिफट के लिए भी पूछा, लदेत्न मैंनदे ही मना कर दिया और कहा कि मुझदे तो रोज ऐसदे ही आना-जाना है । आप एक दिन मदद कर देंगी । मदेरदे इस त्वनम् तन्वदेिन को प्रिंसिपल मैम नदे समझा और मुस्ुरा दीं ।
जाति की वजह से नकारा गया अस्ितव
जब दि्ली आए तो यहां आकर जामिया सदे एमए किया और नदेट की परीक्ा भी पास की । बाद में पीएचडी के लिए अपलाय किया । इसी दौरान मुझदे राष्ट्रीय सफाई आंदोलन सदे जुडनदे का मौका मिला, जहां मुझदे मदेरदे हकों के बारदे में और गहरी समझ बनी । मैंनदे दलित महिलाओं पर लिखना शुरू किया । धीरदे-धीरदे मैं उन समृतियों में भी खोती गई, जहां मदेरी जाति की ्वजह सदे मदेरदे अशसतत्व को नकारा गया था । पीएचडी करनी हो या ्लॉलदेज में नौकरी पानी हो दोनों ही मुझदे आसानी सदे नहीं मिलदे । यहां तक कि कई जगहों पर एससी कैटडेगरी में नौकरी नहीं दी गई । अपनदे हक के लिए हमदेशा लडना पडा । बोलती और जागरुक लडत्यां समाज को अचछी नहीं लगतीं । ऐसदे अ्वरोधकों नदे मुझदे बहुत रोकनदे की कोशिश की, लदेत्न मैं भी रुकी नहीं ।
मैलिा उठाने वालिों पर पहलिी किताब
मदेरी पहली किताब उन दलित महिलाओं पर
आई, जिनहोंनदे मैला उ्ठानदे का दंश झदेला था । जिनका सुहाग सी्वर साफ करतदे हुए जहरीली गैसों की भेंट चढ़ गया । जिनके बच्चदे जाति की ्वजह सदे स्ूल में नहीं जा पाए और मुश््लों सदे गए भी तो स्ूल सदे निकाल दिए गए । स्ूल ्वालों को डर था कि यहां‘ सभय’ समाज के बच्चदे आतदे हैं, तुमहारदे जैसदे मैला उ्ठानदे ्वालों के आएंगदे तो हमें दिक्त हो जाएगी । मदेरा पहला ्त्वता संग्रह“ मां मुझदे मत दो” हिंदी अकादमी, दि्ली द्ारा चयनित है, इससदे मुझदे त्वशदेर पहचान मिली । इसके प्चात लिखनदे पढ़नदे के साथ-साथ समाज में जातीय आधार पर हो रहदे अनयाय के खिलाफ बोलनदे और संघर्ष करनदे का आत्मविश्वास भी जागा और तीन पुस्तकें और प्रकाशित हुईं । अनदे् पत्-पतत््ाओं में सजग सातहशतय् लदेखन करतदे हुए अनदे् सममातनत पुरस्ारों सदे भी न्वाजा गया ।
युनिवर्सिटी तसलिेबस में शातमलि हुआ लिेखन
हाल ही में पता चला कि मदेरदे द्ारा लिखित प्रथम लघु नाटक " यदे कैसी आजादी का मंचन हरियाणा के हल्ारा ए थिएटर ग्रुप की और सदे अलग-अलग सथानों पर किया गया । मन को हर्षित करती एक उपलशबध और पता चली कि मदेरा लिखा साहितय कुरुक्देत् यूतन्वतसमाटी के सिलदेबस में भी शामिल हो गया है ।
पढिे जाना है, बढिे जाना है
मैं समाज की हर लड्ी को बस यही कहना चाहूंगी कि जी्वन में मुश््लें हर कदम पर आती हैं और कयोंकि तुम लड्ी हो इसलिए समाज तुमहें कई सतरों पर रोकेगा । ऊपर सदे तुम मुखर हो और दलित हो तो और रोकेगा- टोकेगा, लदेत्न हमें हिममत नहीं हारनी है । आत्मविश्वास, हिममत और लगन सदे पढ़तदे जाना है, आगदे बढ़तदे जाना है, मुश््लों सदे लडतदे- जूझतदे जाना है और समाज में अपनी जगह बनानी है । �
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