Oct 2024_DA | Page 39

अधूरी है । विदेश में होते हुए वहां की पसत्रयों को सितनत्रतापूर्वक जीवन जीते हुए , चिंतन-मनन करते हुए , उनकी प्रगति देख उनकी सत्री चेतना को धार मिली । 1913 में नयूयार्क में पढ़ते हुए , डा . आंबेडकर ने अपने पिता के मित्र को जवाब देते हुए पत्र में लिखा ‘ यह गलत है कि मां-बाप बच्चों को जनम देते है कर्म नही देते । मां-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते है , यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़कों की शिक्ा के साथ ही
लड़कियों की शिक्ा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी । इसलिए आपको नजदीक रिशतेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए ।’ ( धनंजय कीर की पुसतक डा . अमबेिकर-लाईफ एणि मिशन से उद्धृत )
डा . आंबेडकर एकमात्र ऐसे विशिसतरीय चिंतक है जिनहोने परिवार और समाज में सत्री की पसथवत कैसी हो , इस पर गहन चिंतन-मनन किया । पुरूर्ों के साथ सत्री को भी समानता व सितनत्रता मिले , उसे समाजिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी भी प्रापत हो , परिवार में उसका दर्जा पुरूर् के समान हो , इसके लिए उनहोंने दलित गैर दलित पसत्रयों को समाज परिवर्तन के आनदोलन में सवरिय रूप से जुड़ने का आह्ान किया । दोनों जगत यानि घर और समाज में नारी की हीनतर पसथवत को देखकर उनहोंने इस विर्य पर खूब सोचा कि भारतीय सत्री की पसथवत में रिांवतकारी परिवर्तन कैसे आए । यह रिांवतकारी परिवर्तन परिवार तथा समाज में नारी को विशेर्ाधिकार देकर ही किया जा सकता था ।
डा . आंबेडकर का मानना था कि सत्री तथा समाज की उन्नति , शिक्ा के बिना नही हो सकती । सुनदर और सुवशवक्त व सभय परिवार के लिए आवशयक है कि पुरूर्ों के साथ-साथ घर की पसत्रयां भी पढ़ी लिखी हो ताकि वे समाज परिवर्तन की प्रवरिया में शामिल हो सके । समाज के परिवर्तन द्ारा ही पसत्रयों की मुक्त समभि है । डा . आंबेडकर का मानना था कि परिवार में सत्री शिक्ा ही वासतविक प्रगति की धुरी है । जिस घर में पढ़ी लिखी सत्री व मां हो उस घर के बच्चों का भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाता है । सत्री शिक्ा को डा . आंबेडकर महति देते हुए कहते है कि अगर घर में एक पुरूर् पढ़ता है तो केवल वही पढ़ता है और यदि घर में सत्री पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ता है ।
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