May-June 2024_DA | Page 19

की जयादा कोशिश की । वासिव में डा . आंबेडकर के प्रति नेहरू जी की दुर्भावनाएं धीरे-धीरे उजागर होती चली गयी एवं दलित वर्ग धीरे-धीरे कांग्ेस से दूर होता चला गया ।
पर असलियत में कांग्ेस ने दलित समाज को सिर्फ एक वोर् बैंक बना कर रख दिया । इसी प्रकार कांग्ेस ने भूमि सुधारों और हरित रिांति जैसी अचछे नाम वाली नीतियों के जरिए ग्ामीण क्षेत्ों में रहने वाली बड़ी जनसंखया वाली दलित एवं पिछड़े वर्ग की जातियों में से धनी किसानों के एक वर्ग को अलग निकाल लिया , जोकि कांग्ेस का सहयोगी बना रहाI लेकिन जो जातिगत संगठन और राजनीतिक दल डा . आंबेडकर के नाम पर पैदा हुए , उनकी अपनी राजनीतिक महतवाकांक्षाएं विकसित होती गयी और धीरे-धीरे उनहोंने सथानीय और राजय के सत्ा आधारों पर क्षेत्ीय राजनीतिक दलों के रूप में कई राजयों की सत्ा पर अपना कबजा
कर लिया । इससे चुनावी राजनीति में जो होड़ पैदा हुई , उसका परिणाम जातियों के रूप में बने वोर् बैंक के रूप में सामने आया । मौकापरसि दलित नेताओं की वजह से दलित आंदोलन , सिर्फ पहचान की राजनीति में भर्क गया । डा . आंबेडकर के जरिए दलित वोर्ों पर कबजा जमाने की इचछा जरूर दिखाई गयी , पर उनकी वासितवक विरासत और विचारों को समझने और उसे आगे ले जाने का संकलप कहीं नहीं लिया गया । डा . आंबेडकर ने कहा था कि वर्गहीन समाज गढ़ने से पहले समाज को जातिविहीन करना होगा । लेकिन डा . आंबेडकर के नाम पर देश में शुरू हुई राजनीति ने पूरे समाज में जाति की जड़ों को और गहरा एवं आपसी भाईचारा को और अधिक कमजोर करने का काम किया ।
डा . आंबेडकर का नाम लेकर दलितों के कलयाण के लिए उभरे नेताओं ने दलित समाज का भावनातमक शोर्ण तो किया ही , साथ ही दलितों को भी विभिन्न छोर्ी-छोर्ी उपजातियों में बांर् दिया । परिणामसवरूप दलित समाज के मुद्े यानी असपृसयिा , गरीबी , भूमिहीनता , बेरोजग़ारी , अशिक्षा , उतपीिऩ और सामाजिक तिरसकाि सब कुछ पीछे छूर् गए । देखा जाए तो वर्तमान दलित राजनीति , डॉ . आंबेडकर की विचारधारा , आदशषों और लक्यों से पूरी तरह भर्कने के साथ ही वर्तमान दलित राजनीति , मुद्ातवहीनता का शिकार है ।
बहुसंख्यक हिन्ू बर्ग को बांट दिया
किसी समाज , वयवसथा या राजय पर विजय पाने की यह सबसे सरल मार्ग यह है कि उस समाज को योजनाबद ढंग से छोर्े-छोर्े र्ुकड़ों में बांर् कर , आपस में इतना जयादा वैमनसय और विद्वेष से भर दिया जाए , कि वह कभी भी एकजुर् न हो पाए । अंग्ेजों ने " बांर्ो और राज करो " की नीति के तहत यही किया था और सविंत् भारत में दलित उतथान का नारा देकर राजनीति में आए नेताओं ने भी इसी रणनीति को अपनाया । अगर यह विचार किया जाए कि
प्राचीन हिनदू समाज में जाति वयवसथा का यह दुर्गुण था ही नहीं । यह तो बारहवीं सदी के उपरांत विदेशी मुससलम आरिांिाओं , अंग्ेजों , वामपंथियों और कांग्ेस प्रेरित इतिहासकारों और लेखकों ने हिनदुओं पर थोपी गयी जाति वयवसथा को एक नासूर की तरह पूरे हिनदू समाज पर थोप दिया । भारतीय सनातनी समाज में जातीयता को बढ़ावा देकर पूरे हिनदू समाज को ख़तम करने की रणनीति पर बहुत ही सफाई के साथ काम किया गया । इसके लिए उन दलित नेताओं और संगठनों का उपयोग किया गया , जो सार्वजनिक रूप से दलित कलयाण के लिए काम करने का दावा करते आ रहे थे । कांग्ेस और उसके सहयोगियों ने बड़ी चालाकी के साथ ऐसे दलित नेताओं की हर तरह से मदद की , जो उनके एजेंडे को दलित उतथान के नाम से बेच रहे थे । इसके लिए देश के उस इतिहास और धर्मग्ंथों का सहारा लिया गया , जिस इतिहास और धर्म ग्ंथों में बड़ी सफाई के साथ अनुचित एवं शरारतपूर्ण वयाखया को जोड़कर पूरे समाज को भ्रमित करने की चेष्र्ा की गयी । इतना ही नहीं , दलित और पिछड़ी जातियों के कलयाण के नाम पर सामानय जातियों के साथ ही हिंदू देवी- देवताओं को भी निशाना बनाया गया ।
देश का शायद ही कोई ऐसा राजय होगा , जहां दलितों कलयाण के नाम पर संगठन नहीं बनाये गए होंगे । लेकिन ऐसे तमाम संगठन सिर्फ हिनदू धर्म को जातिगत आधार पर कमजोर करते रहे और जो नेता राजनीति में आकर सफल भी हुए , उनके लिए दलित हित और दलित कलयाण सिर्फ चुनावी चर्चा और मुद्ा बन कर रह गया । ऐसे अनेकानेक नेता और संगठन अपने हित के लिए उन विदेशी शसकियों के मोहरे भी बन गए जो हिनदू समाज को कमजोर करके देश की सत्ा को अससथि एवं भौगोलिक सीमा को कमजोर करने की साजिश रचती आ रही हैंI केवल सवतहि एवं लाभ की भावना पर केंद्रित नेताओं की वजह से देश में धर्मानििण का बाजार भी गर्म हो गया और इसका सबसे नकारातमक परिणाम केवल दलित समाज को ही उठाना पड़ा । देश में पिछड़ी और दलित जातियों को
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