सं्वैधानिक गणतंत्र
स्थिति काफी बिगड़ चिुकी है । जो का्यता पुनर्जागरण काल तथा गत बीस वरषों की अंतरिम अवधि से नेताओं द्ारा शुरू मक्या हुआ था । ऐसा लगता है वह पदूरा नहीं होगा और महिलाएं ही न केवल असुरमक्त हैं, बल्कि वह कानदून जो हाल के वरषों में उन्हें समान अवसर प्रदान करते हैं, वासतव में प्रभावशाली नहीं है ।
डा. आंबेडकर ने महत्ददू कोड विधे्यक को पुरःस्ामपत करने में महतवपदूणता भदूमिका निभाई । इसमें महिलाओं के लिए विवाह और संपमत् के अधिकारों की व्यवस्ा थी । उन वरषों के दौरान, जब भारत उनकी अगुवाई में संघर्षरत था, तब
प्रधानमंरिी जवाहरलाल नेहरू के पदूरे प्राधिकार से भी हम इस का्यता को अंतरिम संसद से करा पाने में समर्थ नहीं हुए थे । यद्यपि डा. आंबेडकर एक सतमभ-सवरूप थे और उन्होंने महिला सदस्यों तथा अत््य प्रगतिशील व्यन्कत्यों की सहा्यता से महत्ददू कोड विधे्यक को अमधमन्यमित कराने में ्य्ा-संभव प्र्यास मक्या, लेकिन कुछ महतवपदूणता सदस्यों के बाधा डालने से, जिस पर अध्यक् और उपाध्यक् ने कोई आपमत् नहीं की थी । ्यह सप्ट हो ग्या था कि डा. आंबेडकर तथा अत््य उन दृढ़ संकलपी व्यन्कत्यों, जिन्होंने
विधे्यक का समर्थन मक्या था, इसे अमधमन्यमित कराने से पहले ही अंतरिम संसद की अवधि पदूरी हो जाएगी ।
उस सम्य दुर्गाबाई ने और मैंने पंडित नेहरू से बात की थी और इस मामले पर कुछ मनन करने के बाद उन्होंने कहा था, " क्या आप इस बात से सहमत है कि मैं महिलाओं के लिए समान अधिकारों का पक्धर हदूं?" हमने कहा, " जी हां, निःसंदेह "। तब उन्होंने कहा, " हमारे मल्ये ्यह आसान रहेगा कि हम इसे अपने चिुनाव घोषणा परि में शामिल करें और ्यमद हम चिुनाव में विज्यी रहते हैं, तब महत्ददू महिलाओं के लिए
विवाह और संपमत् के मामले में महिलाओं का समान अधिकार संबंधी विधे्यक के पुरःस्ापन को कोई नहीं रोक सकेगा ।" डा. आंबेडकर और इनमें से अधिकांश इसका स्गन नहीं चिाहते थे, लेकिन इसका कोई विकलप भी नहीं था । फिर महत्ददू कोड को विवाह और संपमत् संबंधी दो मभरि विधे्यकों में विभाजित कर मद्या ग्या और दोनों ही पहली संसद में अमधमन्यमित कर दिए गए ।
फिर भी, भारत की महिलाएं डा. आंबेडकर की अत्यन्त आभारी हैं । उन्होंने न केवल महत्ददू
कोड संबंधी विधे्यकों को तै्यार मक्या था और उन्हें अमधमन्यमित कराने का प्र्यास मक्या था, बल्कि वह ्यह तथ्य भी हमारी जानकारी में लाए थे कि उस सम्य पंचिा्यत राज विनाशकारी होता । डा. आंबेडकर में अत््य बहुत सी खदूमब्यां थीं । वह प्रारूप तै्यार करने वाली समिति के सभापति थे । इस संदर्भ में ्यह कोई नहीं नकार सकता कि दो वरषों की अलप अवधि में तै्यार मक्या ग्या भारती्य संविधान का प्रारूप जो बहुत अधिक विसतृत न होने के बावजदूद बहुत अचछा और ददूसरों के मल्ये एक आदर्श है ।
जैसा कि मैंने प्रारमभ में ही उललेख मक्या है कि संविधान सभा में डा. आंबेडकर के साथ का्यता करने के सम्य से बहुत पहले से ही मैं उनके व्यक्तितव से अत्यधिक प्रभावित थी । वह वासतव में सभी समस्याओं का दृढ़ निश्वय से समाधान ढूंढ़ने वाली महान हसती थी । ्यह समरणी्य है कि अनुसदूमचित जाति से संबद्ध होने के कारण उन्हें अपमान सहना पड़ा था, लेकिन इस व्यक्ति के गुण इस प्रकार के थे कि कोई भी का्यतावाही और किसी भी तरह का अपमान उनकी शक्ति और ताकत के सामने बाधा नहीं बन सका । मुझे वासतव में हर्ष है कि उनके प्रबल व्यक्तितव को उसकी उमचित मात््यता प्रदान की जा रही है । उन्होंने उसी प्रकार महतवपदूणता भदूमिका निभाई, जैसी कि उन कुछ नेताओं ने निभाई थी जिनका हम इसलिए आदर करते हैं, क्योंकि वह देश के सवतंरिता संघर्ष में अग्गामी रहे थे । इस महान व्यक्तितव ने क्टकारी जाति- प्रथा और मानव मारि के प्रति अत््या्य के विरुद्ध, जो लड़ाई लड़ी, इससे भारती्य इतिहास में एक महतवपदूणता स्ान उन्हें सवतः ही प्रापत हो जाता है ।
( श्ीमती रेणदुका रे संत्विान सभा की सदसया थीं । ्वह 1952 में पश्िम बंगाल त्विानमंडल और 1957 में संसद के लिए भी िदुनी गईं । उनका यह लेख 1991 में लोकसभा सचि्वालय द्ारा प्रकाशित
' सदुप्रतसद सांसद( मोनोग्ाफ सीरीज) डा. बी. आर. आंबेडकर ' नामक पदुसतक में
सनममतलत किया गया था । पाठकों के लिए यह लेख साभार प्रस्तुत किया गया है ।)
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