कोठारी आ्योग भारत का ऐसा पहला शिक्ा आ्योग था, जिसने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों के मद्ेनजर कुछ ठोस सुझाव दिए । आ्योग ने शिक्ा पर सरकारी व्य्य बढ़ाने की बात की थी लेकिन 50 साल गुजर जाने के बावजदूद आज भी सकल घरेलु उतपाद का छह प्रतिशत भी शिक्ा के ऊपर खचिता नहीं मक्या जाता । समावेशी विकास के तहत इसे 9 % प्रतिशत( नाइन इज माइन) करने की बात थी लेकिन अब वो पुरानी बात हो गई है ।
राष्ट्रीय शिक्ा नीति 24 जुलाई 1986 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्ा नीति घोषित की गई । सामाजिक दक्ता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्ापना करने का लक््य निर्धारित मक्या ग्या । राष्ट्रीय शिक्ा का मदूल मंरि ्यह है कि एक मनन््चित सतर तक प्रत्येक बच्े को बिना किसी जात-पात, धर्म, स्ान, लिंग भेद के, लगभग एक जैसी शिक्ा प्रदान की जा्ये । इस दृन््ट से अगर हम नवोद्य विद्ाल्य, औपचिारिक विद्ाल्य और अनौपचिारिक विद्ाल्य में प्रति छारि प्रति वर्ष आने वाले खचिता को देंखें तो साफ़ साफ़ पता चिलता है कि शिक्ा
की तीनों अलग-अलग परतें शैक्मणक गुणवत्ा की दृन््ट से कितनी असमान हो सकती हैं । ध्यान देने की बात ्यह है कि नवोद्य विद्ाल्य में प्रति वर्ष प्रति छारि खचिता( 1990 के मदूल्य पर आधारित) 10,000 से ऊपर, सरकारी प्राथमिक विद्ाल्यों में 700 के आस-पास तथा अनौपचिारिक केन्द्ों में 100 के आस-पास है । ्यह सोचिने वाली बात है कि शिक्ा में लागत के सतर पर इतना बड़ा अंतर भला किस तरह शिक्ा की एकसमान गुणवत्ा बरक़रार रखेगा । प्रतिभाशाली छारिों के लिए नवोद्य किसम के विद्ाल्य की स्ापना वसतुतः अपनी अवधारणा में ही ्यह मानकर चिलती है कि कुछ बच्े जन्मजात ही प्रतिभाशाली होते हैं और बाकि के बच्े जन्म से ही फिसड्ी । इनमें सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों का ्योगदान नहीं होता । साथ ही ्यह अचछी शिक्ा का हक़ सिर्फ तथाकथित जन्म से ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले छारिों का ही है, बाकी का नहीं ।
मप्यरे बोर्दिऊ ने अपनी पुसतक‘ सांस्कृतिक उतपादन’ में इसी स्थिति को दशाता्या है, वे कहते हैं कि अभिजन वर्ग के बच्े अपने पदूवताजों की
सांस्कृतिक पदूंजी की वजह से पहले ही मजबदूत स्थिति में रहते हैं जिसमें उन बच्ों का अपना कोई ्योगदान नहीं रहता । जबकि राममदूमतता समिति( 1990) स्वयं ही ्यह मानती है कि इसमें समानता और सामाजिक त््या्य का प्रश्न जुड़ा है, क्योंकि अधिकतर ग्ामीण बच्े गरीबी के कारण निम्न सतर के स्कूलों में ही शिक्ा पाते हैं जिससे उनकी प्रतिभा, रुझान और ्योग्यता का विकास सीमित हो जाता है । पाउलो फ्ेरे जैसे प्रमतन््ठत शिक्ामवद ने अपने साक्ातकार में कहा था कि- उनके परिवार के पास प्रा्यः खाने के लिए प्यातापत भोजन नहीं रहता था, इस वजह से वह स्कूल में पिछड़ गए । इन शिक्ामवदों की बातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि राजनीतिक दलों का इससे कुछ लेना-देना नहीं है । ्यही वजह है कि सैद्धांतिक तौर पर तो वे सामाजिक त््या्य की बात करते हैं परन्तु इसे जमीनी रूप देने वाले का्यताकमों में इसकी झलक नहीं मिल पाती ।
भारती्य जाति व्यवस्ा में व्यापत संकीर्णता और असमानता हमें एक ददूसरे से व्यावहारिक और वैचिारिक तौर पर अलग करते हैं । लेकिन अगर इस समाज में व्यापत कुरीमत्यों और बुराइ्यों को ददूर करने की बात हो तो इसमें भी वैचिारिक मतभेद हो सकता हैं | समस्या तो ्यह है कि आज के मशमक्तों में से कई लोगों को समाज और देश की समस्याओं की समझ ही नहीं है । हम देखते हैं कि आज भी समाज के मशमक्त वर्ग में समाज और देश की समस्याओं को समझने की सकारातमक और वैज्ामनक दृन््टकोण का अभाव है । शिक्ा के समान अवसर, आर्थिक सुरक्ा, मदूल्य आधारित शिक्ा, सामाजिक, सांप्रदाम्यक और लिंग विभेद जैसी समस्याओं से अवगत कराने वाली शिक्ा-प्रणाली को लागदू करने से देश में न केवल शिक्ा के सतर में सुधार आएगा बल्कि साक्रता का दर भी बढ़ेगा । जब पदूरे देश में एकसमान‘ कर’ प्रणाली लागदू की जा सकती है तो एक सामान शिक्ा व्यवस्ा क्यों नहीं? प्र्योग में सैद्धांतिक व व्यवहारिक सतर पर का्यता करना होगा, देश-काल, सम्य की आवश्यकता के अनुसार दोनों बातों पर एक साथ मवचिार करना ही सम्य और समाज की जरुरत है । �
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