चिंतन
दलित वर्ग को शिक्षित करने की चुनौती
घन्याम कुश्वाहा iz
त्येक देश ्या समाज की अभिव्यक्ति ्या पहचिान उस देश और समाज में रहने वाली जनसंख्या की शिक्ा व्यवस्ा पर निर्भर करता है । शिक्ा से हमारा तात्पर्य जिसके द्ारा हमें अपने बारे में, अपने समाज तथा अपने आस- पास की समसत चिीजों के बारे में जानकारी प्रापत होती है; तथा जिसके द्ारा हमें अपनी वैज्ामनक दृन््टकोण बढ़ाने और वसतुमन्ठता का बोध होता है । शिक्ा को परिभाषित करते हुए प्रख्यात समाजशासरिी इमाइल दुखमीम लिखते हैं,“ शिक्ा अधिक आ्यु के लोगों द्ारा ऐसे लोगों के प्रति की जाने वाली मक्या है जो अभी सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के ्योग्य नहीं है । इसका
उद्े््य शिशु में उन भौतिक, बौद्धिक और नैतिक विशेषताओं का विकास करना है जो उसके लिए सम्पूर्ण समाज और प्यातावरण से अनुककूलन करने के लिए आवश्यक है ।“ इस प्रकार दुखमीम शिक्ा को मानव के भौतिक, बौध्दिक एवं नैतिक विकास तथा प्यातावरण से अनुककूलन का एक साधन मानते हैं ।
हम जानते हैं भारती्य समाज विविधताओं से भरा समाज है जिसमें लगभग प्रत्येक धर्म व संप्रदा्य के लोगों के साथ-साथ मवमभन् प्रकार के वर्ग व जामत्यां पा्यी जाती हैं । शिक्ा का प्रथम उद्े््य सभी को समान रूप से बिना भेदभाव मक्ये शिक्ा प्रदान करना है । लेकिन भारती्य जाति व्यवस्ा की संरचिना‘ शुद्धता- अशुद्धता’ तथा‘ मवत््यामसत असमानता’ पर
आधारित होने तथा शुद्ों की सामाजिक पदकम में निम्न स्थिति के कारण उन्हें शिक्ा जैसी व्यवस्ा से ददूर रखा ग्या था । जाति व्यवस्ा के दंश को झेलने वाले भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुसतक‘ एन्ीमहलेशन ऑफ़ कासट’ में जाति व्यवस्ा की समाप्ति की बात की है । उनका मत था कि जाति को समापत करने से पहले जाति से समबंमधत धार्मिक धारणाओं को समापत करना होगा जो शासरिों में वर्णित है । सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने वाले कारकों में वे शिक्ा को प्रथम स्ान देते हैं । वे कहते हैं‘ मशमक्त बनो, संघर्ष करो और संगठित रहो’। उनके इन सभी प्र्यासों के फलसवरूप समाज में एक चिेतना जाग्त हुई तथा उनके बाद सभी राजनितिक दलों और सरकारों ने दलितों
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