May 2023_DA | Page 50

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वय्खय्पन किया गया । सरसििी में प्रकाशित ( 1914 में ) हीरा डोम की कविता , ’ अछूत की शिकायत ’ को दलित हिनदी साहितय की प्रथम रचना के रूप में सिीककृवि मिली ।
दलित विषयक साहितय को आगे ले जाने में फ़ुले और अमबेडकर का बहुत बड़ा हाथ रहा । सर्वप्रथम यह मर््ठी साहितय के रूप में आया । उसके बाद तेलगु , कन्नड़ , मलयालम और तामिल में आया । बाकी भाषाओं में 20 वीं शदी के अंतिम दो दशकों में आया , लेकिन मलयालम दलित चिंतक कंचाइललयय् जब तक यह घोषणा करते हैं कि कुछ ही िरयों बाद देखना , अंग्ेजी भारत की र्षट्भाषा बन जायगी और हिनदू-धर्म नषट हो जायगा ; वेद , उपनिषद तथा गीता से प्रेरणा प्रापि करने वाले साहितय के सथ्र पर अंबेडकरवादी दलित विषयक साहितय सर्ववय्पी हो जायगा , तब वे वासिि में दलित विषयक विमर्ष को सि्थना और घृणा की राजनीति का
शिकार बनाने की कोशिश करते हैं । ऐसे चिंतक दलित विषयक साहितय को आधुनिक विमर्ष के बजाय हिनदू विषयक विमर्ष के रूप में प्रसिुि करते हैं । बावजूद यह सतय है कि अंबेडकर का साहितय , दलित-मुसकि की खोज , ज््र की मुसकि के रूप में करते हैं । जब भगवान बुद्ध आये तब उनहोंने रि्ह्मणवादी वयिसथ् से ज््र को उच् िणयों के शिकंजे से मुकि कराया था । आज भी दलित इसी कार्य को करने की कोशिश कर रहे हैं । इसके लिए संविधान में इनहें संवैधानिक शसकि भी प्रापि है । यद्वप मणिपुर में शेष भारत की तरह , न तो वर्ण-वयिसथ् की विककृवियां पहले थीं , न ही आज है । कहते हैं , मणिपुरी समाज में 13 वीं , 14 वीं शदी में मणिपुर में वैषणि धर्म का जब प्रवेश हुआ , तब यहां सर्वप्रथम -- ” जाति-पाति पूछे नहीं कोय , हरि को भजे सो हरि के होय ” मानने वाले रामानंदी समप्रदाय आये । लगता है , मणिपुरी समप्रदाय को
ये रामानंदी भा गये , तभी यहां वैषणि धर्म का प्रचार हो सका । इतना ही नहीं , बंगाल के गौड़ीय समप्रदाय को भी यहां फ़लने-फ़ूलने का मणिपुर समप्रदाय ने भरपूर माहौल दिया । उसके प्रचारकों ने यहां जाति-वयिसथ् चलाने का भी प्रयास किया । मगर मणिपुरी समाज अपने संसक्र में इतने प्रबल थे कि यहां जातिगत भेदभाव जड़ नहीं जमा सका । मणिपुर की तरह अरूणाचल प्रदेश , मिजोराम , मेघालय और नागालैंड में भी जाति-भेद न होने के कारण , वहां के साहितय में दलित विषयक विमर्ष नहीं है ।
यह कहा जा सकता है कि भारतीय साहित में दलित विषयक विमर्ष के वय्पक प्रचलन का मूल कारण जाति और वर्ण पर आधारित सामाजिक भेदभाव रहा है । जिस कारण बीसवीं शदी के अंत तक दलित वर्ग समाज में सर उ्ठ्कर खुद को दलित-िगटीय कहने का भी हिममि नहीं उ्ठ् नहीं पाता था । लेकिन जब हिनदू-धर्म के खोखले आदशयों व संस्कृति को वे समझने लगे , तब इस वयिसथ् के विरुद्ध खड़े होने की हिममि करने लगे । आज दलित विषयक साहितय का उभार भारतीय समाज वयिसथ् के परिवर्तन का द्ोिक ही नहीं , बसलक एक प्रकार से सवर्ण समाज पर शिेि-पत् सा लगता है । यदि देखा जाय , तो दलित चेतना को इस जीवंत सिर के तह पहुंचाने के लिए महातम् जयोवि राव फ़ुले ( सन 1890 एवं सावित्ी वाई फ़ुले 1831 ) जैसे समर्पित दंपति का योगदान विसमृि नहीं किया जा सकता । इनहोंने 1848 में पहली कनय् प््ठशाला खोली । 1851 में अछूतों के लिए पहली प््ठशाला खोली और 1864 में विधवा विवाह समपन्न कराया । सावित्ी वाई फ़ुले को दलित समाज की पहली भारतीय शिक्षिका बनने का गौरव प्रापि है । कुल मिलाकर देखा जाय , तो दलित-समाज के सभी तबके के लोगों का सिर मुखय धारा से अलग रहने की छटपटाहट अभिवयसकि करता है । हम उममीद कर सकते हैं , कि दलित चेतना का यह संघर्ष एक दिन उनहें समाज की मुखय धारा से जोड़ने के लिए बाधय करेगी ।
( साभार )
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