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ओणम , श्रावणी आदि पवगों को पाखंड और ईसरर , गुड फ्ाइडे आदि को पलवत् और पावन सिद्ध करना ही है । दलित समाज के कुछ युवा भी ईसाईयों के बहकावें में आकर मूर्खता पूर्ण हरकते कर अपने आपको उनका मानसिक गुलाम सिद्ध कर देते है ।
पिछले सौ वरगों से हिनदू समाज ने दलितों के उतथान के लिए अनेक प्रयास हुए । सर्वप्रथम प्रयास आर्यसमाज के संसथापक सवामी दयानंद द्ारा किया गया । आधुनिक भारत में दलितों को गायत्ी मंत् की दीक्ा देने वाले , सवर्ण होते हुए उनके हाथ से भोजन-जल ग्िण करने वाले , उनिें वेद मंत् पढ़ने , सुनने और सुनाने का प्रावधान करने वाले , उनिें बिना भेदभाव के आध्ासतमक शिक्ा ग्िण करने का विधान देने वाले , उनिें वापिस से शुद्ध होकर वैदिक धमटी
बनने का विधान देने वाले अगर कोई है तो सवामी दयानंद है । सवामी दयानंद के चिंतन का अनुसरण करते हुए आर्यसमाज ने अनेक गुरुकुल और विद्यालय खोले जिनमें बिना जाति भेदभाव के समान रूप से सभी को शिक्ा दी गई । अनेक सामूहिक भोज का््गरिम हुए जिससे सामाजिक दूरियां दूर हुए । अनेक मंदिरों में दलितों को न केवल प्रवेश मिला अपितु जनेऊ धारण करने और अलनिहोत् करने का भी अधिकार मिला । इस महान कार्य के लिए आर्यसमाज के अनेकों
कार्यकर्ताओं ने जैसे सवामी श्रद्धानंद , लाला लाजपत राय , भाई परमाननद आदि ने अपना जीवन लगा दिया ।
इसी प्रकार से वीर सावरकर द्ारा रत्नागिरी में पतितपावन मंदिर की सथापना करने से लेकर दलितों के मंदिरों में प्रवेश और छुआछूत उनर्मुलन के लिए भारी प्रयास किये गए । इसके अतिरिकत वनवासी कल्ाण आश्रम , रामकृष्ण मिशन आदि द्ारा वनवासी क्ेत्ों में भी अनेक कार्य किए जा रहे हैं । ईसाई मिशनरी अपने मीडिया में प्रभावों से इन सभी का्गों को कभी उजागर नहीं होने देती । वह यह दिखाती है कि केवल वही कार्य कर रहे है । बाकि कोई दलितों के उतथान का कार्य नहीं कर रहा है । यह भी एक प्रकार का वैचारिक आतंकवाद है । इससे दलित समाज में यह भ्रम फैलता है कि केवल
ईसाई ही दलितों के शुभचिंतक है । हिनदू सवर्ण समाज तो सवाथटी और उनसे द्ेर करने वाला है ।
ईसाई मिशनरी ने अगर किसी के चिंतन का सबसे अधिक दुरूपयोग किया तो वह संभवत डा . आंबेडकर ही थे । जब तक डा . आंबेडकर जीवित थे , ईसाई मिशनरी उनिें बड़े से बड़ा प्रलोभन देती रही कि किसी प्रकार से ईसाई मत ग्िण कर ले क्ोंकि डा . आंबेडकर ईसाई बनते ही करोड़ों दलितों के ईसाई बनने का रासता सदा
के लिए खुल जाता । लेकिन डा . आंबेडकर ने खुले श्दों के ईसाइयों द्ारा साम , दाम , दंड और भेद की नीति से धर्मानतरण करने को अनुचित कहा । डॉ अमबेडकर ने ईसाई धर्मानतरण को राष्ट्र के लिए घातक बताया था । उनिें ज्ात था कि इसे धर्मानतरण करने के बाद भी दलितों के साथ भेदभाव होगा । उनिें ज्ात था कि ईसाई समाज में भी अंग्ेज ईसाई , गैर अंग्ेज ईसाई , सवर्ण ईसाई , दलित ईसाई जैसे भेदभाव हैं । इन सभी गुटों में आपस में विवाह आदि के समबनध नहीं होते है । इनके गिरिजाघर , पादरी से लेकर कलब्सतान भी अलग होते हैं । अगर सथानीय सतर पर ( विशेष रूप से दलक्ण भारत ) दलित ईसाईयों के साथ दूसरे ईसाई भेदभाव करते है । तो विशव सतर पर गोरे ईसाई ( यूरोप ) काले ईसाईयों ( अफ्ीका ) के साथ भेदभाव करते हैं । इसलिए केवल नाम से ईसाई बनने से डा . आंबेडकर ने सपष्र इंकार कर दिया ।
ईसाई मिशनरी दलितों को हिंदुओं के अलग करने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही हैं । इनका प्रयास इतना सुनियोजित है कि साधारण भारतीयों को इनके षड़यंत् का आभास तक नहीं होता । अपने आपको ईसाई समाज मधुर भाषी , गरीबों के लिए दया एवं सेवा की भावना रखने वाला , विद्यालय , अनाथालय , चिकितसाि् आदि के माध्म से गरीबों की सहायता करने वाला दिखाता है । मगर सत् यह है कि ईसाई यह सब कार्य मानवता कि सेवा के लिए नहीं , अपितु इसके माध्म से धर्मानतरण में जुटे हुए हैं । विशव इतिहास से लेकर वर्तमान में देख लीजिये पूरे विशव में कोई भी ईसाई मिशन मानव सेवा के लिए केवल धर्मानतरण के लिए कार्य कर रहा हैं । यही खेल उनिोंने दलितों के साथ खेला है । दलितों को ईसाईयों की कठपुतली बनने के सथान पर उन हिंदुओं का साथ देना चाहिए जो जातिवाद का समर्थन नहीं करते है । भारत के दलितों का कल्ाण हिनदू समाज के साथ मिलकर रहने में ही है । इसके लिए हिनदू समाज को जातिवाद रूपी सांप का फन कुचलकर अपने ही भाइयों को बिना भेद भाव के सवीकार करना होगा । �
50 ekpZ 2024