March 2024_DA | Page 37

लिए , पारटी लाइन से ऊपर उठकर । दल-बदल कानून के कारण वह बेअसर रहा है । डा . आंबेडकर दूरदशटी नेता थे । उनिें अहसास था कि इन समूहों को बराबरी का दर्जा पाने के लिए बहुत समय लगेगा । वह यह भी जानते थे कि सिर्फ आरक्ण से सामाजिक न्ा् सुनिश्रित नहीं किया जा सकता ।
डा . आंबेडकर का पूरा जोर दलित-वंचित वगगों में शिक्ा के प्रसार और राजनीतिक चेतना पर रहा है । आरक्ण उनके लिए एक सीमाबद् तरकीब थी । दुर्भाग् से आज उनके अनुयायी इन बातों को भुला चुके है । बड़ा सवाल यह है कि सवतंत्ता के इतने वरगों बाद भी अगर भारतीय समाज इन दलित-आदिवासी समूहों को आतमसात नहीं कर पाया है , तो जरूरत है पूरे संवैधानिक प्रावधानों पर नई सोच के साथ देखने की , तांकि इन वगगों को सामाजिक बराबरी के सतर पर खड़ा किया जा सके । डा . आंबेडकर का मत था कि राष्ट्र व्सकत्ों से होता है , व्सकत के सुख और समृद्धि से राष्ट्र सुखी और समृद्ध बनता है । डा . आंबेडकर के विचार से राष्ट्र एक भाव है , एक चेतना है , जिसका सबसे छोटा घटक व्सकत है और व्सकत को सुसंसकृत तथा राष्ट्रीय जीवन से
जुड़ा होना चाहिए । राष्ट्र को सवगोपरि मानते हुए डा . आंबेडकर व्सकत को प्रगति का केद् बनाना चाहते थे । वह व्सकत को साध् और राज् को साधन मानते थे ।
डा . आंबेडकर ने इस देश की सामाजिक- सांसकृलतक वसतुगत ससथलत का सही और साफ आंकलन किया है । उनिोंने कहा कि भारत में किसी भी आर्थिक-राजनीतिक रिांलत से पहले एक सामाजिक-सांसकृलतक रिांलत की दरकार है । पंडित दीनदयाल उपाध्ा् ने भी अपनी विचारधारा में ‘ अंत्ोदय ’ की बात कही है । अंत्ोदय यानि समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो बैठा हुआ है , सबसे पहले उसका उदय होना चाहिए । राष्ट्र को सशकत और सवावलंबी बनाने के लिए समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो लोग है उनका सोशियो इकोनॉमिक डेवलपमेंट करना होगा । किसी भी राष्ट्र का विकास तभी अर्थपूर्ण हो सकता है जब भौतिक प्रगति के साथ साथ आध्ासतमक मूल्ों का भी संगम हो । जहां तक भारत की विशेषता , भारत का कलचर , भारत की संसकृलत का सवाल है तो यह विशव की बेहतर संसकृलत है । भारतीय संसकृलत को समृद् और श्रेष्ठ बनाने में सबसे बड़ा योगदान दलित समाज के लोगों का है । इस देश
में आदि कवि कहलाने का सममान केवल महर्षि वासलमकी को है , शासत्ों के ज्ाता का सममान वेदव्ास को है । भारतीय संविधान के निर्माण का श्रेय डा . आंबेडकर को जाता है ।
वर्तमान में कुछ देशी-विदेशी शसकत्ां हमारी इन सामाजिक-संसकृलतक धरोहरों को हिंदुतव से अलग करने की योजनाएं बना रही है । माकस्ग की पूंजीवादी व्वसथा में जहां मुठ्ी भर धनपति शोषक की भूमिका में उभरता है , वहीं जाति और नसिभेद व्वसथा में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रुप में नजर आता है । जिसका समाधान डा . आंबेडकर सशकत हिंदू समाज में बताते है क्ोंकि वह जानते थे कि हिंदू धर्म न तो इसे मानने वालों के लिए अफीम है और न ही यह किसी को अपनी जकड़न में लेता है । वसतुतः यह मानव को पूर्ण सवतंत्ता देने वाला है । यह चिरसथा्ी रुप से विकास , संपन्नता तथा व्सकत व समाज को संपूर्णता प्रदान करने का एक साधन है । डा . आंबेडकर के पास भारतीय समाज का आंखों देखा अनुभव था , तीन हजार वरगों की पीड़ा भी थी । इसलिए डा . आंबेडकर सही अथगों में भारतीय समाज की उन गहरी वसतुलनष्ठ सच्ाइयों को समझ पाते हैं , जिनिें कोई माकस्गवादी नहीं समझ सकता ।
डा . आंबेडकर का सपना था कि एक जातिविहीन , वर्गविहीन , सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक , लैंगिक और सांसकृलतक विषमताओं से मुकत समाज । ऐसा समाज बनाने के लिए हिंदू समाज का सशकतीकरण सबसे पहली प्राथमिकता होगी । यही डा . आंबेडकर की सोच और संघर्ष का सार है । आज डा . आंबेडकर इस देश की संघर्षशील और परिवर्तनकारी समूहों के हर महतवपूर्ण सवाल पर प्रासंगिक हो रहे हैं , इसी कारण वह विकास के लिए संघर्ष के प्रेरणा स्ोत भी बन गए है । मेरा मानना है कि हिंदुतव के सहारे ही समाज में एक जन-जागरण शुरू किया जा सकता है । जिसमें हिंदू अपने संकीर्ण मतभेदों से ऊपर उठकर सव्ं को विराट्-अखंड हिंदुसतानी समाज के रूप में संगठित कर भारत को एक महान राष्ट्र बना सकते हैं ।
( सयाभयाि ) ekpZ 2024 37