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शोषण एवं उतपीड़न होगा , वहीं सामाजिक न्ा् की धारणा जनम लेगी । आशा के अनुरूप उत्र न मिलने पर उनिोंने 1935 में नासिक में यह घोषणा की , वह हिंदू नहीं रहेंगे । अंग्ेजी सरकार ने भले ही दलित समाज को कुछ कानूनी अधिकार दिए थे , लेकिन डा . आंबेडकर जानते थे कि यह समस्ा कानून की समस्ा नहीं है । यह हिंदू समाज के भीतर की समस्ा है और इसे हिंदुओं को ही सुलझाना होगा । वह समाज के विभिन्न वगगो को आपस में जोड़ने का कार्य कर रहे थे ।
डा . आंबेडकर ने भले ही हिंदू न रहने की घोषणा कर दी थी । ईसाइयत या इसिाम से खुला निमंत्ण मिलने के बावजूद उनिोंने इन विदेशी धमगों में जाना उचित नहीं माना । डा . आंबेडकर इसिाम और ईसाइयत ग्िण करने वाले दलितों की दुर्दशा को जानते थे । उनका मत था कि धर्मांतरण से राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है । विदेशी धमगों को अपनाने से व्सकत अपने देश की परंपरा से टूटता है । वर्तमान समय में देश ओर दुनियां में ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि डा . आंबेडकर केवल दलितों के नेता थे । उनिोंने केवल दलित उतथान के लिए कार्य किया , यह सही नहीं होगा । यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि डा . आंबेडकर ने भारत की आतमा हिंदूतव के लिए कार्य किया । जब हिंदूओं के लिए एक विधि संहिता बनाने का प्रंसग आया तो सबसे बड़ा सवाल हिंदू को पारिभाषित करने का था । डा . आंबेडकरने अपनी दूरदृष्टि से इसे ऐसे पारिभाषित किया कि मुसलमान , ईसाई , यहूदी और पारसी को छोड़कर इस देश के सब नागरिक हिंदू हैं , अर्थात विदेशी उदगम के धमगों को मानने वाले अहिंदू हैं , बाकी सब हिंदू है । उनिोंने इस परिभाषा से देश की आधारभूत एकता का अद्भूत उदाहरण पेश किया है ।
डा . आंबेडकर का सपना भारत को महान , सशकत और सवावलंबी बनाने का था । डा . आंबेडकर की दृष्टि में प्रजातंत् व्वसथा सवगोतम व्वसथा है , जिसमें एक मानव एक मूल् का विचार है । सामाजिक व्वसथा में हर व्सकत का अपना अपना योगदान है , पर राजनीतिक
दृष्टि से यह योगदान तभी संभव है , जब समाज और विचार दोनों प्रजातांलत्क हों । आर्थिक कल्ाण के लिए आर्थिक दृष्टि से भी प्रजातंत् जरुरी है । आज लोकतांलत्क और आधुनिक दिखाई देने वाला देश , डा . आंबेडकर के संविधान सभा में किए गए वैचारिक संघर्ष और उनके व्ापक दृष्टिकोण का नतीजा है , जो उनकी देख-रेख में बनाए गए संविधान में लरियासनवत हुआ है , लेकिन फिर भी संविधान वैसा नहीं बन पाया जैसा डा . आंबेडकर चाहते थे , इसलिए वह इस संविधान से खुश नहीं थे । आखिर डा . आंबेडकर सवतनत् भारत के लिए कैसा संविधान चाहते थे ?
डा . आंबेडकर चाहते थे कि देश के हर बच्े को एक समान , अनिवार्य और मुफत शिक्ा मिलनी चाहिए , चाहे वह किसी भी जाति , धर्म या वर्ग का क्ों न हो । वह संविधान में शिक्ा को मौलिक अधिकार बनवाना चाहते थे । देश की आधी से ज्ादा आबादी बदहाली , गरीबी और भूखमरी की रेखा पर अमानवीय और असांसकृलतक जीवन जीने को अभिशपत है । इस आबादी की आर्थिक सुरक्ा सुनिश्रित करने के लिए ही डा . आंबेडकर ने रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की वकालत की थी । संविधान में मौलिक अधिकार न बन पाने के कारण 20 करोड़ से भी ज्ादा लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे है । बाबा साहब ने दलित वगगो के लिए शिक्ा और रोजगार में आरक्ण दिए जाने की वकालत की थी ताकि उनिें दूसरो की तरह बराबर के मौके मिल सकें । अगर शिक्ा , रोजगार और आवास को मौलिक अधिकार बना दिया जाता तो उनिें आरक्ण की वकालत की शायद जरूरत ही न होती ।
डा . आंबेडकर प्रजातांलत्क सरकारों की कमी से परिचित थे , इसलिए उनिोंने साधारण कानून के सथान पर संवैधानिक कानून को महतव दिया । मजदूर अधिकारों पर डा . आंबेडकर का मानना था कि वर्ण व्वसथा केवल श्रम का ही विभाजन नहीं है , यह श्रमिकों का भी विभाजन है । दलितों को भी मजदूर वर्ग के रूप में एकलत्त होना चाहिए । मगर यह एकता मजदूरों के बीच जाति
की खाई को मिटा कर ही हो सकती है । डा . आंबेडकर की यह सोच बेहद रिांलतकारी है , क्ोंकि यह भारतीय समाज की सामाजिक संरचना की सही और वासतलवक समझ की ओर ले जाने वाली कोशिश है ।
डा . आंबेडकर भारतीय दलितों का राजनीतिक सशकतीकरण चाहते थे । उसी का नतीजा है कि आज लोकसभा की 79 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए और 41 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरलक्त की गई है । सरकार ने संविधान संशोधन कर यह राजनीतिक आरक्ण 2026 तक कर दिया है । शुरू में आरक्ण केवल दस वर्ष के लिए था । यह राजनीतिक आरक्ण इन समूहों का कितना सशकतीकरण कर पाया हैं , यह आज के समय का एक बड़ा सवाल है । अपना जनसमर्थन खो देने के डर से कोई भी राजनीतिक दल इस पर चर्चा नहीं करना चाहता ।
देखा जाए , तो दल-बदल कानून के रहते यह संभव ही नहीं है कि कोई दलित-आदिवासी विधायक या संसद अपनी मजटी से वोट कर सके । हमने देखा है कि कुछ साल पहले लोकसभा में दलित-आदिवासी सांसदों ने एक फोरम बनाया था , इन वगगो के अधिकारों के
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