विद्रोह की यूरोपीय परिभाषा में सीमित किया जा सके । इसी प्रकार इतिहासकारों ने वरिटिश सरकार के विरुद्ध हुए भारतीय सवाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े सशसत्र आंदोलन‘ हूल’ को संथाल विद्रोह तक सीमित कर उसकी महत्ा को कुचलने का प्रयास किया, जबकि सवाधीनता संग्ाम में संथाल हूल एक ऐसी लड़ाई थी जिसने वरिटिश सेना को नाकों चने चबा दिए थे । जिन वनवासियों / आदिवासियों को अंग्ेजी असभय और जंगली मानते थे उसी के अनुपम लाल सिदो-कानहू के नेतृतव में किए गए हूल ने कंपनी सरकार को कई बार भाग खड़े को मजबूर कर दिया ।
अससमता और सुरषिा के लिए विद्रोह का रूख
अंग्ेजों के खून से शौर्य गाथा लिखने वाले
सिदो-कानहू का जनम झारखंड कसथत राजमहल के पहावड़यों से घिरा साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में हुआ । सिदो का जनम 1820 एवं कानहू का जनम 1832 में हुआ । इनके और दो भाईयों का नाम चांद और भैरव थे । इनके अलावा इनकी दो बहने भी थीं जिनका नाम फकूलो मुर्मू और झानो मुर्मू था । सिदो-कानहू के माता-पिता का नाम चुनु मुर्मू और सोलन मुर्मू था । सिदो-कानहू, चांद-भैरव एवं फकूलो-झानो द्ारा 1855-56 में वरिटिश सत्ा, साहूकारों, वयापारियों और जमींदारों के अतयाचारों के विरुद्ध वरिटिश सरकार के विरोध में किए गए विद्रोह को संथाल हूल के नाम से जाना जाता है । ऐतिहासिक दसतावेजों से जानकारी मिलती है कि 19 वीं सदी के मधय में अंग्ेजों ने संथाल जनजातियों के भू-सवावमयों के लिए कड़े नियम
बना दिए, जिस कारण बड़ी मात्रा में जनजातियों की भूमि हसतांतरित होने लगी । लगान को एकाएक तीन गुणा कर दिया गया । अंग्ेजों ने लगान वसूलने की जिममेवारी सथानीय जमींदारों को दे दी । इस रिम में संथाल जनजाति के लोगों ने कर्ज लेना शुरू कर दिया, जिससे शुरूआती दौर में राहत तो जरूर मिली परंतु धीरे-धीरे कर्ज के जाल में फंस गए । र्जदाताओं ने चालबाजी कर इन पर मुकदमा भी किया, अधिकांश मुकदमें में संथालों की हार हुई । इस घटना के लोगों का वरिटिश नयायपालिका से विशवास पूर्णतया उठ गया और खुद की अकसमता और सुरक्षा के लिए विद्रोह का रूख अकखतयार किया ।
30 जून 1855 में भोगनाडीह में संथालों की एक सभा हुई, जिसमें 400 गांवों के पचास हजार से अधिक लोग एकत्र हुए । सिद्धो-कान्हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही‘ करो या मरो, अंग्ेज हमारी माटी छोड़ो’ की घोषणा कर दी । इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर रिांवत का संदेश घर-घर पहुंचाया गया । संथालों ने पहला आरिमण उनके विरूद्ध किया, जिनहोंने उनहें धोखा देकर अककूत धन अर्जित किया । आरिमण में पाकुड़ के लिट्ीपाड़ा और बरहेट के कुसमा के महाजनों को लूटा गया । धीरे-धीरे आंदोलन फैलाने लगा । अंग्ेजों का नेतृतव जनरल ललॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे । एक मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हतया कर दी गई, जिससे अंग्ेजों में भय का माहौल बन गया । शासन पर विजय से उतसावहत होकर पचास हजार संथाल वीर अंग्ेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिए । यह देखकर अंग्ेजों ने मेजर बूरी के नेतृतव में सेना भेज दी । पांच घंटे के खूनी संघर्ष में अंग्ेजों की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पाकुड़ किले पर कबजा कर लिया । संथालों के भय से अंग्ेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था, जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में कसथत हैं । इस युद्ध में सैकड़ों अंग्ेज सैनिक मारे गए, जिससे कमपनी के अधिकारी
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