July 2025_DA | Page 17

मार्गदर्शन दिया है । इसने दिखाया है कि कानून वासतव में सामाजिक परिवर्तन का साधन, सश्तीकरण की ताकत और कमजोर लोगों का रक्षक हो सकता है ।
सवतंत्रता के बाद से किए गए नयावयक और विधायी उपायों की सूची पर प्रकाश डालते हुए, मुखय नयायाधीश नयायमूर्ति गवई ने कहा कि हमें सामाजिक-आर्थिक नयाय की अनिवार्यता को समझना चाहिए । यह केवल पुनर्वितरण या कलयाण का मामला नहीं है । यह प्रतयेक वयक्त को सममान के साथ जीने, अपनी पूर्ण मानवीय क्षमता का एहसास करने और देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेने में सक्षम बनाने के बारे में है । भारतीय संविधान को 26 जनवरी, 1950 को न केवल शासन के लिए एक राजनीतिक दसतावेज के रूप में अपनाया गया था, बकलक यह समाज के लिए एक वादा, एक रिांवतकारी व्तवय और गरीबी, असमानता और सामाजिक विभाजन से पीवड़त, लंबे समय के औपनिवेशिक शासन से बाहर आ रहे देश के लिए आशा की किरण है ।
उनहोंने कहा कि यह एक नई शुरुआत का वादा था, जहां सामाजिक और आर्थिक नयाय हमारे देश का मुखय लक्य होगा । अपने मूल में, भारतीय संविधान सभी के लिए सवतंत्रता और समानता के आिशषों को कायम रखता है ।
भारतीय संविधान के निर्माण ने उपनिवेशवाद के बाद की दुनिया में लोकतांत्रिक शासन के लिए एक गहरी मिसाल कायम की है । भारत का संविधान अनय उभरते देशों के लिए एक आदर्श बन गया है जो समावेशी और भागीदारीपूर्ण शासन संरचना बनाने का प्रयास कर रहे हैं । सकारातमक कार्रवाई नीतियों के लिए सपषट रूप से संवैधानिक समर्थन प्रदान करके, संसद ने सामाजिक नयाय और शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अवसरों के समान वितरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर जोर दिया ।
उनहोंने कहा कि अनुचछेि 15( 4) ने अनुचछेि 45 में निहित सामाजिक-आर्थिक नयाय को प्रभावी बनाया । 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राजय मामले में सववोच्च नयायालय के 13 नयायाधीशों की अब तक की सबसे बड़ी पीठ द्ारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए नयायालय ने कहा था कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने के वयापक अधिकार हैं, लेकिन वह संविधान के ' मूल ढांचे ' में बदलाव नहीं कर सकती ।
उनहोंने कहा कि भारतीय संसद ने सामाजिक-आर्थिक नयाय को आगे बढ़ाने के उद्ेशय से कई तरह के कानून बनाए हैं । इनमें सामाजिक रूप से दमनकारी और भेदभावपूर्ण
प्रथाओं को प्रतिबंधित करने वाले कानून शामिल हैंI जैसे-बंधुआ मजदूरी प्रणाली( उनमूलन) अधिनियम, बाल श्म( निषेध और विनियमन) अधिनियम, दहेज निषेध अधिनियम और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति( अतयाचार निवारण) अधिनियम । इनमें से प्रतयेक कानून ऐतिहासिक अनयाय और संरचनातमक असमानताओं को दूर करने तथा सभी नागरिकों की गरिमा और अधिकारों को कायम रखने वाले कानूनी ढांचे का निर्माण करने के लिए एक सचेत प्रयास का प्रतिनिधितव करता है । 1970 के दशक के उत्रार्ध से, उच्चतम नयायालय ने राजय नीति के वनिदेशक सिद्धांतों का हवाला देकर संविधान के अनुचछेि-21 के तहत ' जीवन के अधिकार ' की वयाखया को काफी वयापक बना दिया । नयायालय ने माना कि जीवन का अधिकार केवल शारीरिक अकसततव के बारे में नहीं है, बकलक इसमें सममान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है । इसने इस समझ को सामाजिक- आर्थिक अधिकारों की एक विसतृत श्ृंखला को शामिल करने के लिए विसतारित किया, जिसे अ्सर वनिदेशक सिद्धांतों से समर्थन प्रापत होता है । नयायालय ने माना कि अनुचछेि-21 के तहत जीवन के अधिकार का उन बुनियादी शतषों के बिना कोई मतलब नहीं है जो जीवन को जीने लायक बनाती हैं । �
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