July 2024_DA | Page 50

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घुमंतू जातियाँ भी शोर्ण का शिकार रहीं हैं । वे भी इस दायरे में शामिल हैं । इसलिए जब कोई वयक्त इस शबद का इसतेमाल अधिक वयापक अर्थ में करता है तब उसे यह अवशय सपषट करना चाहिए कि वह इसका इसतेमाल किस संदर्भ में कर रहा है । यह एक ऐसे दलित लड़के की कहानी है जिसके साथ एक ब्राह्मण उसके द्ािा संसकृत शलोक उच्ारित करने के ‘ अपराध ’ में दुवय्यवहार करता है । बाद में यह लड़का शिक्ा प्रापत कर जज बनता है । एक अनय पुराना उदाहरण है मललापलले ( 1922 में प्रकाशित )। मललापलले का अर्थ है – माला लोगों का निवास सथान । माला , आंध्र प्रदेश की दो प्रमुख एससी जातियों में से एक है । इसके लेखक उन्ावा लक्मीनारायणा ( 1877- 1958 ) एक ऊँची जाति से थे । दो मार्मिक कृतियां जो हाथ से मैला साफ करने की प्रथा और उस समुदाय के चरित्ों को लचलत्त करती हैं , वे हैं थोटियुडे माकन और थोट्टी । इन दोनों कृतियों के लेखक क्रमश : थकाजी शिवशंकर पिललई ( जो अपने उपनयास चेमेन के लिए अधिक जाने जाते हैं और जिस पर फिलम भी बनाई जा चुकी है ) और नागवलली आर . एस . कुरू थे । ये दोनों कृतियां 1947 में प्रकाशित हुईं थीं । यह दिलचसप है कि ' मेहतर का पुत् ', ' मेहतर ' के पूर्व प्रकाशित हुआ था । कुमारन आसन की दुरावसथा व चंडाल भिक्ुकी भी दलित समुदायों के बारे में हैं । कुमारन आसन सवयं इड़िवा समुदाय के थे । उस समय इड़िवाओं को भी ' अछूत ' माना जाता था , हालांकि वे इस प्रथा से उतने पीड़ित नहीं थे
जितने कि दलित ।
शिक्ा के लिए हुए संघर्ष पर आधारित ' जूठन '
हिंदी दलित साहितय में ओमप्रकाश वालमीलक की आतमकथा ' जूठन ' ने अपना एक विशिषट सथान बनाया है | इस पुसतक ने दलित , ग़ैि- दलित पाठकों , आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है , वह उललेखनीय है । सवतनत्ता प्राकपत के बाद भी दलितों को शिक्ा प्रापत करने के लिए जो एक लंबा संघर््य करना पड़ा , ' जूठन ' इसे गंभीरता से उठाती है । प्रसतुलत और भार्ा के सति पर यह रचना पाठकों के अनतम्यन को झकझोर देती है । भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-वयवसथा के सवाल को इस रचना में गहरे सरोकारों के साथ उठाया गया है । सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक विसंगतियां क़दम – क़दम पर दलित का रासता रोक कर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम र्ड्ंत् रचती है । लेकिन एक दलित संघर््य करते हुए इन तमाम विसंगतियों से अपने आतमलवशवास के बल पर बाहर आता है और जेएनयू जैसे विशवलवद्ालय में विदेशी भार्ा का विद्ान बनता है । ग्रामीण जीवन में अलशलक्त दलित का जो शोर्ण होता रहा है , वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शलमांदगी का सबब होना चाहिए था ।' पच्ीस चौका डेढ़ सौ ' ( ओमप्रकाश वालमीलक ) कहानी में इसी तरह के शोर्ण को जब पाठक पढ़ता है , तो वह समाज में वयापत शोर्ण की संसकृलत के प्रति गहरी निराशा से भर उठता है ।
सदियों के उत्ीड़न से पनपा आक्ोश
दलित कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं , शोर्ण के विविध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिवय्त हुए हैं । ' अपना गाँव ' मोहनदास नैमिशराय की एक महत्वपूर्ण कहानी है जो दलित मुक्त-संघर््य आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है । दलित साहितय की यह विशिषट कहानी है । दलितों में सवालभमान और आतमलवशवास जगाने की भाव भूमि तैयार करती है । इसीलिए यह विशिषट कहानी बन कर पाठकों की संवेदना से दलित समसया को जोड़ती है । दलितों के भीतर हज़ारों साल के उतपीड़न ने जो आक्रोश जगाया है वह इस कहानी में सवाभाविक रूप से अभिवय्त होता है ।
इतिहास की पुनर्वमाख्ा की कोशिश
आतमकथाओं की एक विशिषटता होती है उसकी भार्ा , जो जीवन की गंभीर और कटू अनुभूतियों को तटसथता के साथ अभिवय्त करती है । एक दलित सत्ी को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ता है- एक उसका सत्ी होना और दूसरा दलित होना । सपषटतः दलित चिंतकों ने रूलढ़वादी इतिहास की पुनवया्यखया करने की कोशिश की है । इनके अनुसार ग़लत इतिहास - बोध के कारण लोगों ने दलितों और कसत्यों को इतिहास - हीन मान लिया है , जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महतवपूर्ण है । दलित चिंतकों ने इतिहास की पुनवया्यखया करने की कोशिश की है । इनके अनुसार गलत इतिहास - बोध के कारण लोगों ने दलितों और कसत्यों को इतिहास - हीन मान लिया है , जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महतवपूर्ण है । वे इतिहासवान है । सिर्फ जरूरत दलितों और कसत्यों द्ािा अपने इतिहास को खोजने की है । वे इतिहासवान है । सिर्फ ज़रूरत दलितों और कसत्यों द्ािा अपने इतिहास को खोजने की है । �
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